भारतीय संस्कृति में भवन निर्माण से पूर्व किसी शुभ मुहूर्त में वास्तु पूजन, भूमिपूजन, आवश्यक माना जाता हैं । इसके पीछे उद्देश्य यही हैं कि निर्माण लेकर पूरा होन के बाद भी किसी प्रकार की विघ्न-बाधा न आये एवं हमेशा सुख -शान्ति, पारस्परिक स्नेह-सद्भाव बना रहें, आर्थिक उन्नति, सामाजिक मान-प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि होती रहे । वास्तुशास्त्र के नियमों को ध्यान में रखकर यदि भवन निर्माण किए जाएँ, तो आपाधापी भरे इस युग में भी अशान्ति, तनाव, अभाव ऋणग्रस्तता, असफलता एवं दिवालिया होने जैसी दुखदायी परिस्थितियों से बच जा सकता है । रहने, सोने, खाने-पीने उठने-बैठने के कक्ष, अध्ययन कक्ष, पूजा स्थल, दुकान, क्लीनिक, व्यापारिक प्रतिष्ठान आदि का निर्माण साज-सज्जा व्यवस्था में नियमानुसार हेर-फेर करके वह सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है ।
वास्तुशास्त्रकार के अनुसार जिस भूखंड में भवन निर्माण करना है, सर्वप्रथम उसके सोलह भाग करके शुभाशुभ दिशाओं का ध्यान रखते हुए नक्शा बनाना तथा कमरों का निर्माण करना चाहिए । भारतीय संस्कृति को उनकी अनुपम देन विश्वकर्मा प्रकाश के द्वितीय अध्याय में इस संबंध में विस्तृत उल्लेखनीय है यथा-
ईशान्यो देवतागेहं पूर्वस्यां स्ननामंदिरम् । आग्नेयां पाकसदनं भांडारागारमुत्तरे ॥
आग्नेयपूर्वयोर्मध्येद धिमन्थनमंदिरम् । अग्निप्रेतेशायोर्मध्ये आज्यगेहं प्रशस्यते ॥
याम्यनैऋतयोर्मध्ये पुरीषत्याग मंदिरम् । नैऋत्याम्बुपयोर्मध्ये विद्याभ्यासस्पमंदिरम् ॥
पश्चिमनिलयोर्मध्ये रोदनाथ गृहमस्मृतम् । वायव्योत्तरर्मध्ये रतिगेहं प्रशस्यते ॥
उत्तरेशनयोर्मध्ये औषार्थन्तुकारयेत् । नैऋत्यां सूतिकागेंह नृपाणां भूमिमिच्छताम् ॥
अर्थात्- उत्तर -पूरब के मध्य ईशान कोण में मंदिर, देवालय या पूजा कक्ष, पूरब दिशा में स्नानगृह, दक्षिण और पूरब के मध्य आग्नेय कोण में रसोईघर, उत्तर दिशा में भंडार कक्ष (स्टोर रूम) एवं कोष का निर्माण करना चाहिए । आग्नेय कोण और पूरब दिशा के बीच दूध-दही मथने का कक्ष, आग्नेय कोण और दक्षिण दिशा के मध्य धृतादि का कक्ष श्रेष्ठ माना गया है । दक्षिण दिशा और नैऋत्य कोण के मध्य शौचालय एवं नैऋत्य कोण तथा पश्चिम दिशा के मध्य में अध्ययन कक्ष बनाना चाहिए। पश्चिम दिशा और वायव्य कोण के बीच में रुदन कक्ष (पारिवारिक गोष्ठी कक्ष) तथा वायव्य और उत्तर दिशा के मध्य में दाम्पत्य गृह बनाना चाहिए । उत्तर दिशा और ईशान कोण के मध्य में औषधालय -क्लीनिक, नैऋत्य कोण में प्रसूतिकक्ष बनाना चाहिए ।
इसी तरह भोजन-कक्ष यानी डायनिंग हाल-पश्चिम दिशा में, शयन कक्ष दक्षिण दिशा में, स्वागत कक्ष- ड्राइंगरूम ईशान कोण में, पशुशाला धान्य गृह वायव्य कोण में, पशुशाला एवं धान्य गृह वायव्य कोण में, शस्त्रागार नैऋत्य कोण में बनाना चाहिए । कार पार्किंग या गैराज भी वायव्य दिशा में बनाना उपयुक्त रहता है । इसके लिए आग्नेय कोण का भी प्रयोग कर सकते हैं, किन्तु ईशान कोण में गैराज सर्वथा वर्जित है। कुआँ, पानी की टंकी आदि का निर्माण पूरब, पश्चिम, उत्तर व ईशान कोण में किया जा सकता है ।
इस तरह भौगोलिक स्थितियों-दिशाओं को ध्यान में रखकर जो भवन या घर बनाए जाते है, वे सभी निवासकर्ताओं के लिए सुख -संतोष एवं सत्परिणाम प्रदान करते हैं । मनमाने ढंग से -अशास्त्रीय विधि से बने मकान कलह-क्लेश जन-धन-हानि दुख दारिद्रय, अदालतबाजी, रुग्णता एवं सर्वनाश का कारण भी बनते है । ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव में परिवर्तन कर सकना भले ही मनुष्य के हाथ में न हों, किंतु वास्तु-विद्या के अनुसार अपने आच्छादन का निर्माण कर सकना, अशुभ फलदायक घरों-मकानों में थोड़ा-बहुत हेर-फेर करके अपने अनुकूल बना लेना सर्वथा अपने हाथ में है ।
भवन का और यहाँ तक कि प्रत्येक कमरे का ईशान कोण अर्थात् उत्तर और पूर्व के मध्य का भाग या कोना अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, ईश्वर का निवासस्थान मानते हुए इस दिशा में “ईशान्यांदेवतागेह” का शास्त्रनिर्देश किया गया है अर्थात् ईशान दिशा में इष्ट देवता का मंदिर, देवालय, पूजा स्थल या पूजा कक्ष बनाना चाहिए । सूर्य पूरब से उदित होता है, अतः उसकी जीवनदायिनी प्राण ऊर्जा से भरपूर लाभ उठाने के लिए पूर्वोत्तर दिशा में पूजा कक्ष या देव मंदिर का होना अनिवार्य है ।
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