हमारे देश में यूं तो अनेक मंदिर हैं और ये ही नहीं हर देवी देवता के भी कई मंदिर हैं। इन्हीं मंदिरों में से कुछ देवी मंदिर देवी मां की शक्तिपीठों में भी शामिल हैं। ऐसी ही एक शक्तिपीठ देवभूमि उत्तराखंड में देवप्रयाग में भी स्थिति है। जिसे लोग मां चन्द्रबदनी मंदिर के नाम से जानते हैं।
मान्यता के अनुसार आदि जगतगुरु शंकराचार्य ने की थी यहां शक्तिपीठ की स्थापना। मंदिर में देवी मां का श्रीयंत्र है। मंदिर के गर्भगृह पर एक शिला पर उत्कीर्ण इस श्रीयंत्र के ऊपर चांदी का बड़ा छत्र है।
कहा जाता है कि इस सिद्धपीठ में आने वाले श्रद्धालुओं को मां कभी खाली हाथ नहीं जाने देतीं। मान्यता है कि माता सती का कटि भाग यहां स्थित चन्द्रकूट पर्वत पर गिरने से यहां सिद्धपीठ की स्थापना हुई, इसलिए यहां का नाम चन्द्रबदनी पड़ा।
यह मां चन्द्रबदनी मंदिर देवभूमि उत्तराखंड में देवप्रयाग से 35 किलोमीटर दूर स्थित है, और इसे माता के 52 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मां भगवती का यह मंदिर देवप्रयाग-टिहरी मोटर मार्ग तथा श्रीनगर-टिहरी मोटर मार्ग के मध्य स्थित चन्द्रकूट पर्वत पर है।
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कई धार्मिक पुस्तकों में हैं इस सिद्धपीठ का वर्णन...
स्कंदपुराण, देवी भागवत एवं महाभारत में इस सिद्धपीठ का वर्णन है। प्राचीन ग्रंथों में यहां का उल्लेख भुवनेश्वरी सिद्धपीठ नाम से है। भक्त यहां सिर्फ श्रीयंत्र के ही दर्शन करते हैं। शक्तिपीठ के गर्भगृह में काले पत्थर के श्रीयंत्र के दर्शन करने और पूजा में प्रयुक्त शंख का पानी पीने का बड़ा महत्व माना जाता है।
चन्द्रकूट पर्वत कि चोटी पर बांज‚ बुरांस‚ काफल तथा देवदार आदि के वृक्षों से घिरे हुए क्षेत्र में यह मंदिर स्थित है। यहां की जलवायु अत्यधिक ठंडी और स्वास्थ्यवर्धक है। पूर्व में यहां पहले नरबली‚ और उसके बाद पशुबली भी दी जाती थी। किन्तु अब यहां पर सात्विक विधि–विधान श्रीफल‚ छत्र‚ फल‚ पुष्प आदि द्वारा पूजा की जाती है।
इस शक्तिपीठ की स्थापना के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार राजा दक्ष ने हरिद्वार(कनखल) में यज्ञ किया। दक्ष की पुत्री सती ने भगवान शंकर से यज्ञ में जाने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन भगवान शंकर ने उन्हें वहां न जाने का परामर्श दिया।
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मोहवश सती उनकी बात को न समझकर वहां चली गयी। पिता के घर में अपना और अपने पति का अपमान देखकर उन्होंने अग्नि कुंड में कूदकर प्राण दे दिए। जब शिवजी को इस बात की सूचना प्राप्त हुई तो वे स्वयं दक्ष की यज्ञशाला में गये और सती के शरीर को उठाकर आकाश मार्ग से हिमालय की ओर चल पड़े।
वे सती के वियोग से दुखी और क्रोधित हो गये जिससे पृथ्वी कांपने लगी। अनिष्ट की आशंका से भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के अंगों को छिन्न-भिन्न कर दिया। भगवान विष्णु के चक्र से कटकर सती के अंग जहां-जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए। जैसे जहां सिर गिरा वहां का नाम सुरकण्डा पड़ा। कुच(स्तन) जहां गिरे वहां का नाम कुंजापुरी पड़ा। इसी प्रकार चन्द्रकूट पर्वत पर सती का धड़(बदन) पड़ा, इसलिए यहां का नाम चन्द्रबदनी पड़ा।
यहां पहुंचने के लिये देवप्रयाग–टिहरी मोटर मार्ग पर लगभग 28 किमी आगे एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा जामणीखाल पड़ता है जहां से ऊपर की ओर एक कच्ची सड़क निकलती है। यहां से ग्राम जुराना तक एक घंटे का सफर बस में और वहां से मन्दिर के लिए लगभग एक किमी का पहाड़ी रास्ता है।
रास्ते में कहीं पहाड़ पर सीधी चढ़ाई है तो कहीं पथरीले और घने बांज‚ बुरांस के जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है। करीब आधे - एक घंटे की इस पैदल यात्रा के पश्चात मां भगवती के मन्दिर मे पंहुचा जा सकता है।
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जंगल में पशु-पक्षियों की ध्वनियों से वातावरण संगीतमय बना रहता है। नित्य आरती‚ मंत्रोचारण‚ घृत दीपक प्रज्वलित करने से यहां का वातावरण दिव्य बना रहता है।
यहां नित्यप्रति स्नान करने जाती हैं मां भगवती
मान्यता के अनुसार मां भगवती अरोड़ा नामक स्थान के समीप एक कुण्ड में नित्यप्रति स्नान करने जाती है। ये अदृश्य कुण्ड भक्तिपूर्वक ही देखा जा सकता है।
चन्द्रबदनी शक्ति सिद्धपीठकी खासियत-
: यहां मां जगदम्बे मर भक्त की मनौती पूर्ण करती हैं।
: मंदिर में मां चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही मौजूद है।
: सती का बदन भाग यहां पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है।
: पुजारी लोग आंखों पर पट्टी बांध कर मां चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं।
अंधा हो गया था पुजारी...
जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था। विभिन्न नामों से प्रसिद्ध शैल पुत्री ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्माण्डा, स्कन्धमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी और सिधिदात्री देवी की नवरात्रियों में यहां हरियाली बोकर इस अवसर पर दुर्गा सत्पशती का पाठ किया जाता है। वहीं चैत्र, आश्विन में अष्टमी व नवमी के दिन नवदुर्गा के रूप में नौ कन्याओं को जिमाया जाता है।
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अति प्राचीन मंदिर
चन्द्रबदनी मंदिर काफी प्राचीन बताया जाता है। जनश्रुति है कि आदि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने श्रीनगरपुरम् (श्रीनग) जो श्रृंगीऋषि की तपस्थली भी रही है, श्रीयंत्र से प्रभावित होकर अलकनन्दा नदी के दाहिनी ओर उतंग रमणीक चन्द्रकूट पर्वत पर चन्द्रबदनी शक्ति पीठ की स्थापना की थी।
मंदिर में चन्द्रबदनी की मूर्ति नहीं है। देवी का यंत्र (श्रीयंत्र) ही पुजारी होना बताते हैं। मंदिर गर्भ गृह में एक शिला पर उत्कीर्ण इस यंत्र के ऊपर एक चांदी का बड़ा छत्र अवस्थित किया गया है।
पद्मपुरण के केदारखण्ड में चन्द्रबदनी का विस्तृत वर्णन मिलता है। मंदिर पुरातात्विक अवशेष से पता चलता है कि यह मंदिर कार्तिकेयपुर, बैराठ के कत्यूरी व श्रीपुर के पंवार राजवंशी शासनकाल से पूर्व स्थापित हो गया होगा। इस मंदिर में किसी भी राजा का हस्तक्षेप होना नहीं पाया जाता है।
सोलहवीं सदी में गढ़वाल में कत्यूरी साम्राज्य के पतन के पश्चात् ऊचूगढ़ में चौहानों का साम्राज्य था। उन्हीं के पूर्वज नागवंशी राजा चन्द्र ने चन्द्रबदनी मंदिर की स्थापना की थी।
जनश्रुति के आधार पर चांदपुर गढ़ी के पंवार नरेश अजयपाल ने ऊचूगढ़ के अन्तिम राजा कफू चौहान को परास्त कर गंगा के पश्चिमी पहाड़ पर अधिकार कर लिया था।
तभी से चन्द्रकूट पर्वत पर पंवार राजा का अधिपत्य हो गया होगा। 1805 ई. में गढ़वाल पर गोरखों का शासन हो गया। तब चन्द्रबदनी मंदिर में पूजा और व्यवस्था निमित्त बैंसोली, जगठी, चैंरा, साधना, रित्वा, गोठ्यार, खतेली, गुजेठा, पौंसाड़ा, खाखेड़ा, कोटी, कंडास, परकण्डी, कुनडी आदि गांवों की भूमि मिली थी।
केदारखण्ड के अध्याय 141/27 से स्पष्ट होता है यथा-
दृष्ट्वा तां चन्द्रबदनां विश्वानन्दन तत्पराम्।
उत्न पूर्ण घटस्थां च कोटिबालार्कसान्निभाम्।।
पौराणिक कथाओं के अनुसार मां सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में दुखी होकर हवन कुण्ड में आत्मदाह कर दिया था। दुखित शिव हवनकुण्ड से मां सती का कंकाल अपने कंधे पर रखकर कई स्थानों में घूमने लगे।
जब शिव कंधे पर मां सती का कंकाल कई दिन तक लिए रहे तो भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से शिव के कंधे से मां सती के कंकाल के टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इस तरह हिमालय प्रदेश में मां सती के अंग कई स्थानों पर बिखर गये। जहां-जहां सती के अंग गिरे वे पवित्र शक्तिपीठ हो गये। ये शक्तिपीठ मानव जाति के लिए पूज्य हैं।
चन्द्रबदनी मंदिर 8वीं सदी का होना माना जाता है। चूंकि उत्तरी भारत के इतिहास में चैथी सदी से 12वीं सदी तक मंदिरों का युग कहा जाता है। गढ़वाल के केदारनाथ, कालीमठ, आदिबद्री, गोपीनाथ, विश्वनाथ, पलेठी, गोमुख आदि प्राचीन मंदिर एक ही शैली के माने जाते है।
चन्द्रबदनी के उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों जिनमें शिव-गौरी की कलात्मक पाषाण मूर्ति से प्रतीत होता है कि चन्द्रबदनी मंदिर भी इन्हीं मंदिरों में से एक है।
सन् 1803 ई0 में गड़वाल मण्डल में भयंकर भूकम्प आया था, जिससे यहां के कई मंदिर ध्वस्त हो गये थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार 1742-43 में रूहेलों ने धार्मिक स्थलों को तहस-नहस कर दिया था। समय काल एवं परिस्थितियों के चलते इन मंदिरों में आमूलचूल परिवर्तन होते गए और आज मां चन्द्रबदनी का मंदिर एक भव्य मंदिर के रूप में प्रसिद्धी है।
मंदिर में मां चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है। किवंदती है कि सती का बदन भाग यहां पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है। पुजारी लोग आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं। जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था।
सिद्धपीठ चन्द्रबदनी जनपद टिहरी के हिण्डोलाखाल विकासखण्ड में समुद्रतल से 8000 फिट की ऊंचाई पर चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित है। स्कन्दपुराण के केदारखण्ड में इसे भुवनेश्वरीपीठ नाम से भी अभिहित किया गया है।
मंदिर में चोरखोली काफी विख्यात है। इसके अतिरिक्त भोगशाला, सतसंग भवन, पाठशाला, भण्डारगृह, कैण्टीन, सिंहद्वार, परिक्रमा पथ देखने योग्य हैं।
चन्द्रबदनी मंदिर के पास अथाह प्राकृतिक सौन्दर्य, सुन्दर-सुन्दर पक्षियों के कलरव से मन आनन्दित हो उठता है। चित्ताकर्ष एवं अलौकिक यह मंदिर उत्तराखण्ड के मंदिरों में अनन्य है। यहाँ से चैखम्भा पर्वत मेखला, खैट पर्वत, सुरकण्डा देवी, कुंजापुरी, मंजिल देवता, रानीचैंरी, नई टिहरी, मसूरी आदि कई धार्मिक एवं रमणीक स्थल दिखाई देते हैं।
यहां जाने के लिए पहुंच मार्ग ऋषिकेश से 106 किमी देवप्रयाग होते हुए व पुरानी टिहरी से 47 किमी दूरी पर है। काण्डीखाल से सिलौड़ गांव होते हुए 8 किमी पैदल यात्रा तय करनी पड़ती है।
हर मनौती पूर्ण करती हैं देवी मां...
मान्यता के अनुसार सिद्धपीठ चन्द्रबदनी में जो भी श्रद्धालु भक्तिभाव से अपनी मनौती मांगने जाता है, मां जगदम्बे उसकी मनौती पूर्ण करती हैं। मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालु जन कन्दमूल, फल, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चुन्नी, चांदी के छत्र चढ़ावे के रूप में समर्पित करते हैं।
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