सनातन हिंदू धर्म में व्रत व पूजा का विशेष महत्व माना गया है। ऐसे में आपने कई बार
सोलह सोमवार व्रत का नाम भी सुना होगा, जो मुख्यत: कुंवारी लड़कियां अपने विवाह की आशा से भगवान शिव के नाम पर रखती हैं। वहीं सुहागन स्त्रियां भी इस व्रत को भगवान शंकर की कृपा प्राप्ति के लिए करती हैं।
मान्यता के अनुसार ये व्रतपुरुषो के लिए भाग्योदय स सकल मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं। वहीं यह व्रत स्त्रियों को मनचाहा वर औश्र सौभाग्य प्रदान करता है। इसके अलावा ये व्रत रोग शोक दूर करने के साथ ही जाने अनजाने में किए गए पापों से भी मुक्ति प्रदान करता है। पंडित सुनील शर्मा के अनुसार ऐसे में जहां तकरीबन हिंदू समाज के सभी लोगों ने इसके बारे में सुना तो होगा, लेकिन बहुत कम लोग हैं जो इससे जुड़ी कथा के बारे में जानते हैं। ऐसे में हम आज आपको सोलह सोमवर व्रत की दो कथाओं के बारे में बता रहे हैं।
सोलह सोमवार व्रत की पहली कथा (Solah Somwar Vrat Katha)
प्राचीन समय में एक नगर में एक धनवान साहूकार रहा करता था, जिसके घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी । परन्तु उसका कोई पुत्र नहीं है, जिस कारण वह काफी दुखी रहता था। उसे दिन-रात यही चिंता सताती रहती थी। ऐसे में वह पुत्र पाने की कामना लिए हर सोमवार भगवान शिव जी का व्रत और पूजन किया करता था और शाम के समय शिव मन्दिर में जाकर के भगवान शिव जी के सामने दीपक जलाता था ।
उसके उस भक्तिभाव को देखकर देवी मां पार्वती ने शिव जी से कहा कि यह साहुकार आपका बहुत बड़ा भक्त है और सदैव आपका व्रत और पूजन बड़ी श्रद्धा के साथ करता है। इसकी मनोकामना पूर्ण करनी चाहिए।
शिवजी ने कहा- हे पार्वती! यह संसार कर्मक्षेत्र है। और जैसे किसान खेत में जैसा बीज बोता है वैसा ही फल काटता है। उसी तरह इस संसार में व्यक्ति जैसा कर्म करता हैं वैसा ही फल भोगता हैं।” पार्वती जी ने अत्यन्त आग्रह से कहा- प्रभु! जब यह आपका इतना बड़ा भक्त है और इसको अगर किसी भी प्रकार का दुःख है तो उसे अवश्य दूर करना चाहिए क्योंकि आप सदैव अपने भक्तों पर दयालु होते हैं और उनके दुःखों को हमेशा दूर करते हैं ।
यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो मनुष्य आपकी सेवा व व्रत क्यों करेंगे? पार्वती जी के ऐसे आग्रह पर शिव जी बोले- “हे पार्वती! इसके कोई पुत्र नहीं है, इसी चिन्ता में यह अत्यंत दुःखी रहता है। इसके भाग्य में पुत्र न होने पर भी मैं इसको पुत्र की प्राप्ति का वर दे सकता हूं, लेकिन वह पुत्र केवल 12 वर्ष तक जीवित रहेगा। इसके पश्चात् वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। इससे अधिक तो मैं भी कुछ और इसके लिए नहीं कर सकता ।”
यह बातें साहूकार सुन रहा था। इससे उसको न तो प्रसन्नता हुई और न ही कुछ दुःख हुआ। वह पहले की तरह ही शिव जी महाराज का व्रत और पूजन करता रहा। कुछ समय व्यतीत हो जाने पर साहूकार की स्त्री गर्भवती हुई और दसवें महीने में उसे अति सुन्दर पुत्र की प्राप्ति हुई। साहूकार के घर में बहुत खुशी मनाई गई, परन्तु साहूकार ने उसकी केवल बारह वर्ष की आयु जानकर अधिक प्रसन्नता प्रकट नहीं की और न ही किसी को यह भेद बताया।
जब वह बालक 11 वर्ष का हो गया तो उस बालक की माता ने उसके पिता से विवाह आदि के लिए आग्रह किया तो वह साहूकार कहने लगा कि अभी मैं इसका विवाह नहीं करा सकता। अपने पुत्र को काशी पढ़ने के लिए भेजूंगा। फिर साहूकार ने बालक के मामा को बुलाकर उसको बहुत सा धन दिया और कहा तुम इस बालक को काशी जी पढ़ने के लिए ले जाओ और रास्ते में जिस स्थान पर भी जाओ यज्ञ और ब्राह्मणों को भोजन अवश्य कराते जाना।
फिर वह दोनों मामा-भानजे यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते हुए काशी जी की तरफ रवाना हुए। रास्ते में उनको एक शहर से गजरना पड़ा उस शहर में राजा की कन्या का विवाह था और दूसरे राजा का लड़का जो विवाह करने बारात लेकर आया था, वह एक आंख से काना था ।
उसके पिता को इस बात की बड़ी चिंता हो रही थी कि कहीं वर को देख कन्या के माता-पिता विवाह में किसी प्रकार की अड़चन पैदा न कर दें। इस कारण जब उसने अति सुन्दर सेठ के लड़के को देखा, तो मन में विचार बनाया कि क्यों न दरवाजे के समय इस लड़के से वर का काम चलाया जाए। ऐसा विचार कर वर के पिता ने उस लड़के और उसके मामा से बात की तो वे राजी हो गए फिर उस लड़के को वर के कपड़े पहनाकर और घोड़ी पर चढाकर दरवाजे पर ले गए और सब कार्य प्रसन्नता से पूर्ण हो गया ।
फिर वर के पिता ने सोचा कि यदि विवाह कार्य भी इसी लड़के के द्वारा करा लिया जाय तो क्या बुराई है? ऐसा विचार कर उसने लड़के और उसके मामा से कहा-यदि आप फेरों और कन्यादान के काम को भी करा दें तो आपकी बड़ी कृपा होगी और मैं इसके बदले में आपको बहुत सारा धन दूंगा, तो उन्होनें स्वीकार कर लिया और विवाह कार्य भी बहुत अच्छी तरह से सम्पन्न हो गया ।
परंतु जिस समय लड़का जाने लगा तो उसने राजकुमारी की चुन्नी के पल्ले पर लिख दिया कि तेरा विवाह तो मेरे साथ हुआ है, परन्तु जिस राजकुमार के साथ तुमको भेजेंगे वह एक आंख से काना है और मैं काशी जी में पढ़ने जा रहा हूं। लड़के के जाने के पश्चात उस राजकुमारी ने जब अपनी चुन्नी पर ऐसा लिखा हुआ देखा तो उसने राजकुमार के साथ जाने से मना कर दिया और कहा कि यह मेरा पति नहीं है। मेरा विवाह इसके साथ नहीं हुआ है। वह तो काशी जी पढ्ने गया है। राजकुमारी के माता-पिता ने अपनी कन्या को विदा नहीं किया और बारात वापस चली गयी।
उधर सेठ का लड़का और मामा काशी जी पहुंच गए थे। वहां जाकर लड़के ने पढ़ना शुरू कर दिया। जब लड़के की आयु बारह साल की हो गई उस दिन उन्होंने यज्ञ रचा रखा था कि लड़के ने अपने मामा से कहा- “मामाजी आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं लग है”। मामा ने कहा- “अन्दर जाकर सो जाओ और आराम करो।” लड़का अन्दर जाकर सो गया और थोड़ी देर के बाद में उसके प्राण निकल गए ।
जब उसके मामा ने आकर देखा तो वह मुर्दा पड़ा हुआ है तो उसको बड़ा दुःख हुआ और उसने सोचा कि अगर मैं अभी रोना- पीटना मचा दूंगा तो यज्ञ का कार्य अधूरा रह जाएगा जो की सही नहीं होगा। अतः उसने जल्दी से यज्ञ का कार्य समाप्त किया और ब्राह्मणों के जाने के बाद रोना-पीटना आरम्भ कर दिया । संयोगवश उसी समय शिव-पार्वतीजी उधर से जा रहे थे ।
जब उन्होने जोर- जोर से रोने की आवाज सुनाई दी तो पार्वती जी शिव जी से कहने लगी- “प्रभु! कोई दुखिया रो रहा है कृपया कर इसके कष्ट को दूर कीजिए । जब शिव- पार्वती ने पास जाकर देखा तो वहां एक लड़का मुर्दा पड़ा हुआ था ।
पार्वती जी कहने लगीं- महाराज यह तो उसी सेठ का लड़का है जो आपके वरदान से पैदा हुआ था । अत: “हे प्रभु! इस बालक को और आयु दो, नहीं तो इसके माता-पिता तड़प- तड़प कर मर जाएंगे।” पार्वती जी के बार-बार आग्रह करने पर शिवजी ने उसको जीवन का वरदान दे दिया और भगवान शिवजी की कृपा से लड़का फिर जीवित हो गया। इसके बाद शिवजी और पार्वती कैलाश पर्वत की ओर चले गए।
इसके पश्चात वह लड़का और उसका मामा उसी प्रकार यज्ञ करते और ब्राह्मणों को भोजन कराते अपने घर की ओर वापस चल पड़े। रास्ते में उसी शहर में आए जहां उसका विवाह हुआ था। वहां पर आकर उन्होने यज्ञ आरम्भ कर दिया तो उस लड़के के ससुर ने उसको पहचान लिया और अपने महल में ले जाकर उसकी बड़ी खातिरदारी की साथ ही बहुत से दास-दासियों सहित आदरपूर्वक लड़की और जमाई को विदा भी किया ।
जब वह अपने शहर के निकट आए तो मामा ने कहा कि पहले मैं तुम्हारे घर जाकर खबर कर आता हूं । जब उस लड़के का मामा घर पहुंचा तो लड़के के माता-पिता घर की छत बैठे हुए थे और यह प्रण कर रखा था कि यदि हमारा पुत्र सकुशल लौट आया तो हम राजी-खुशी नीचे आ जाएंगे नहीं तो छत से गिरकर अपने प्राण त्याग देंगे ।
इतने में उस लड़के के मामा ने आकर यह समाचार दिया कि आपका पुत्र वापस आ गया है तो उनको विश्वास नहीं आया तब उसके मामा ने शपथ पूर्वक कहा कि आपका पुत्र अपनी स्त्री के साथ बहुत सारा धन साथ लेकर आया है, तो सेठ ने आनन्द के साथ उसका स्वागत किया और बड़ी प्रसन्नता से साथ रहने लगे। माना जाता है कि इसी प्रकार से जो कोई भी सोमवार के व्रत को धारण करता है अथवा इस कथा को पढ़ता या सुनता है उसकी समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ।
सोलह सोमवार व्रत की दूसरी कथा (Solah Somwar Vrat Katha)
एक बार भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती जी मृत्यु लोक घूमने की इच्छा से मृत्यु लोक में आए। यहां माता पार्वती व भगवान शंकर जी मृत्यु लोक में घूमते-घूमते विदर्भ देशातंर्गत अमरावती नामक नगरी पहुंचे। जो कि बहुत ही सुन्दर थी, यहां उन्होने देखा कि अमरावती नगरी अमरपुरी के द्श्य सभी प्रकार के सुखों से परिपूर्ण थी। उस नगरी में राजा द्वारा बनवाया हुआ बहुत सुन्दर भगवान भोलेनाथ जी का मंदिर भी था। उस मंदिर में भगवान भोलेनाथ जी और माता पार्वती निवास करने लगे।
एक दिन माता पार्वती जी ने भगवान से कहा हे प्रभु आज तो हम और तुम दोनों चौसर पासा खेलेंगे। शंकर जी ने माता पार्वती जी की बात मान ली और चौसर खेलने लगे। उसी समय मंदिर का पुजारी ब्राह्मण मंदरि में पूजा करने के लिए आया हुआ था। माता ने ब्रह्मण को देखकर एक प्रश्न किया कि पुजारी जी बताओ, कि इस बाजी में दोनों में से किसकी जीत होगी, और किसकी हार होगी। ब्राह्मण ने बिना सोचे-समझे कहा कि भगवान भोलेनाथ ही जीतेंगे। कुछ समय बाद बाजी समाप्त हुई और माता पार्वती जी कि विजय हो गयी।
माता पार्वती को ब्राह्मण के झूठ बोलने पर क्रोध आया और कोढ़ी होने का श्राप दे दिया। भगवान शंकरजी के बहुत समझाने के बाद भी माता नही मानी। और वो दोनाें वहां से चले गये। कुछ समय बाद उस ब्राह्मण पुजारी को कोढ़ होने लगे और धीरे-धीरे उसके सारे शरीर में कोढ़ हो गये। ऐसे में वह बहुत ही परेशान व दुखी रहने लगा। इस तरह कई दिन बीत गए, फिर एक दिन देवलोक कि अप्सराएं शिवजी की पूजा करने उसी मंदिर में आईं। अप्सराओं ने उस पुजारी के कष्ट को देखकर बड़े दयाभाव से उसके रोगी होने का कारण पूछा।
तब पुजारी जी ने आप बीती सभी बातें निसंकोच होकर उन अप्साराओं को बता दीं। यह सुनकर वो अप्सराएं बोले हे ब्राह्मण तुम दुखी मत होंओ, भगवान भोलेनाथ जी आपके सभी कष्टों को दूर कर देंगे। परंतु तुम्हें श्रेष्ठ षोडश सोमवार के व्रत पूरे विधि-विधान और भक्तिभाव से पूरे सोलह व्रत करने होगे। और सत्रहवें सोमवार के दिन पाव सेर पवित्र गेहूं के आटे की बाटी बनाएं, उसके बाद घी और गुड़ मिलाकर चूरमा बनाकर भगवान भोलेनाथ जी को प्रसाद चढ़ाना और बाकि के प्रसाद को मंदिर में उपस्थित भक्तों को बांट देना। ऐसे करने से आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी होगी।
ऐसा कहकर अप्सराएं देवलोक चली गयी। ब्राह्मण भी यथाविधि षोडश सोमवार व्रत करने लगा, ऐसे में भगवान भोलेनाथ की कृपा से धीरे-धीरे ब्राह्मण पुजारी कोढ़ से मुक्त होने लगा। कुछ समय बाद भगवान शंकरजी और माता पार्वती जी फिर से उसी मंदिर में पधारें। तब माता ने उस ब्राह्मण को रोग मुक्त होने का कारण पूछा, तो ब्राह्मण ने माता को सोलह सोमवार के व्रत के बारें में विस्तार से बताया। ब्राह्मण की बात सुनकर माता पार्वती जी बहुत प्रसन्न हुई और पुजारी से सोलह सोमवार के व्रत कि विधि पूछीं।
उसी दिन से माता पार्वती जी भी षोडश सोमवार व्रत करने लगी और लगातार सोलह व्रत किया। ऐसे में उनकी मनोकामनाएं पूरी हुई। उनके रूठे पुत्र स्वामी कार्तिकेय जी स्वयं ही माता के आज्ञाकारी हो गये। फिर एक दिन कार्तिकेय को अपना विचार परिवर्तन होने का रहस्य जानने कि इच्छा हुई और वह अपनी माता के पास आए, और बोले कि आपने ऐसा क्या उपाय किया, जिससे मेरा मन आपकी ओर आकर्षित हो गया।
तब माता पार्वती जी ने उसे षोड़श सोमवार कथा सुनाई। तब कार्तिकेय ने अपनी माता से कहा इस व्रत को मैं भी करूंगा। क्योंकि मेरा प्रिय मित्र ब्राह्मण दुखी दिल से परदेश गया है। हमें उससे मिलने कि बहुत इच्छा होती है। फिर कार्तिकेय जी ने भी सोलह सोमवार के व्रत पूरे विधि-विधान से किए और उनकी भी इच्छा पूर्ण हो गयी। उन्हें अपना प्रिय मित्र मिल गया। तब उसके मित्र ने इस आकस्मिक मिलन का भेद कार्तिकेय जी से पूछा। तो वे बोले – “हे मित्र! हमने तुम्हारे मिलने की इच्छा करके सोलह सोमवार के व्रत किए थे।
अब तो उस ब्राह्मण मित्र हो अपने विवाह कि बड़ी इच्छा हुई और वह भी सोलह सोमवार व्रत पूरे विधि-विधान से करने लगा। एक दिन वह किसी काम से विदेश गया, और वहां के राजा ने अपनी पुत्री का स्वयंवर रखा था। उस राजा ने राजकुमारी के विवाह के लिए यह शर्त रखी थी। कि जिस राजकुमार के गले में सब प्रकार श्रेड़गारित हथिनी माला डालेगी, मैं उसी के साथ अपनी बेटी का विवाह करूंगा।
भगवान शिवजी कि कृपा से ब्राह्मण भी उस स्वयंवर को देखने के लिए एक ओर बैठा हुआ था। उसी समया हाथिनी वहा पर आयी और उस ब्राह्मण के गले में जयमाला डाल दी। इस तरह राजा की प्रतिज्ञा के अनुसार बड़ी धूमधाम के साथ अपनी पुत्री का विवाह उस ब्राह्मण के साथ पूरे विधि-विधान से कर दिया और उसे बहुत सारा धन देकर सम्मान पूर्वक संतुष्ट किया। और वो दोनो सुख पूर्वक रहने लगे।
एक दिन उस राजकुमारी ने अपने पति से पूछा कि हे प्राणनाथ आपने ऐसा कौन—सा पुण्य किया है जो हाथिनी ने सभी राजकुमारों को छोड़कर आपके गले में जयमाला डाली। तब ब्राह्मण बोला हे प्राणप्रिय! मैंने अपने मित्र कार्तिकेयजी के कथानुसार सोलह सोमवार का व्रत किया था। जिसके प्रभाव से मुझे तुम जैसी रूपवान पत्नी मिली है। इस व्रत कि महिमा सुनकर राजकन्या को बड़ा आश्चर्य हुआ। और वह भी पुत्र कामना के लिए सोलह सोमवार व्रत करने लगी। और भगवान भोलनाथ से पुत्र कामना कि प्राप्ति करने लगी। शिवजी कि कृपा से कुछ समय बाद उसके गर्भ से एक अति सुन्दर सुशील धर्मात्मा और विद्वान पुत्र हुआ।
वह ब्राह्मण और उसकी पत्नी दोनों उस पुत्र को पाकर बहुत ही प्रसन्न हुए, और उसका लालन-पालन भली प्रकार से करने लगे। जब वह लड़का बड़ा हुआ और समझदार हुआ। तो एक दिन अपनी माता से प्रश्न किया कि माता आपने ऐसा कौन—सा पुण्य किया, जो आपको मेरे जैसा पुत्र की प्राप्ति हुई। पुत्र कि बात सुनकर उस राजकुमारी ने अपने द्वारा किए गए सोलह सोमवार व्रत कि कथा और पूरे नियमों के बारे में उसे बताया। उस लड़के ने इस व्रत को सब तरह से मनोरथ पूर्ण करने वाला सुनकर, उसके मन में राज्याधिकार कि पाने कि इच्छा की।
उस लड़के ने उसी दिन भगवान शिवजी को प्रसन्न करने के लिए सोलह सोमवार के व्रत पूरे नियमों से करने लगा। एक दिन दूसरे देश के राजा के दूत ने आकर उसको उनकी राजकुमारी के लिए चूना। और उसे अपने साथ ले आए और राजा ने अपनी राजकुमारी का विवाह उसके साथ कर दिया। धीरे-धीरे राजा वृद्ध हो गया और उसके लिए राजकाज सभांलना मुश्किल हो गया। उसने अपने दामाद का राज्यातिलक कर दिया और वंहा का राजा घोषित कर दिया। इस तरह ब्राह्मण पुत्र राजा बनकर भी यह व्रत करता रहा।
जब सत्रहवां सोमवार का व्रत आया तो उसने अपनी रानी से सभी सामग्रियों सहित भगवान भोलनाथ जी के मंदिर आने को कहा। किन्तु रानी मंदिर नहीं गयी और उसने अपने दास-दासियों को पूजा की सामग्री लेकर मंदिर भेज दिया। राजा ने पूरे विधि-विधान से भगवान शिवजी कि पूजा करी। जब वह वहां से जाने लगा तो उसने सुना कि आकाशवाणी से एक आवाज आई, और उसने कहा, हे राजा अपनी इस रानी को राजमहल से निकाल दे। नहीं तो ये तेरा सर्वनाश कर देगी। इस वाणी को सुनकर राजा आश्चर्य में पड़ गया और उसने तुरंत मंत्रियों कि बैठक बुलाई। और आपबीती सुनाई।
मंत्री आदि सभी बड़े विस्मय और दुख में डूब गए। क्योंकि जिस कन्या के साथ राज्य मिला है, राजा उसी को राज्य से निकालने का जाल रच रहा है। यह कैसे हो सकेगा ? अंत में राजा ने अपनी रानी काे राजमहल से निकाल दिया। रानी दुखी हदय से अपने भाग्य को कोसती हुयी, अपने राज्य से बाहर चली गयी। बिना चप्पलों के और फटे वस्त्र पहने, भूखी-प्यासी धीरे-धीरे चलकर एक नगर में जा पहुंची। उस नगर में एक बुढि़या रोज सूत कातकर बेचने जाती थी।
रानी की करूण दशा देख बुढि़या बोली तू मेरे साथ चल मेरे सूत बिकवा दे। मैं वृद्व हूं भाव नहीं जानती हूं। यह सुनकर रानी बुढि़या के सिर से सूत की गठरी उतारकर अपने सिर पर रख ली। अचानक से आंधी आई और बुढि़या के सभी सूत हवा में उड़ गए, बेचारी बुढि़या बहुत पछताई और रानी से कहा कि दूर रहना मेरे से। अब रानी एक तेली के घर गयी और काम मागंने लगी, कि अचानक से उस तेली के सभी मटके शिवजी के प्रकोप से चटक गए। ऐसा दशा देखकर उस तेली ने रानी को अपने घर से निकाल दिया।
इस प्रकार रानी अत्यंत दुख पाती हुयी एक नदी के तट पर गयी तो देखा कि नदी अचानक सूख गयी। उसके बाद रानी एक वन में गई, वहां जाकर उसने एक सरोवर देखा और वह पानी पीने के लिऐ सरोवर कि सीढ़ी उतरी। और पानी पीने के लिए जैसे अपने हाथो को आगे बडाया तो देखा कि सरोवर का पानी नीलकमल के सदृयस जल असंख्य कीड़ोमय गंदा हो गया। रानी ने अपने भाग्य का दोषारोपण करते हुए उस सरोवर का जल पीकर अपनी प्यास बुझाई, आराम करने के लिए एक पेड़ की शीतल छाया में विश्राम करने के लिए लेटी तो देखा कि उस पेड़ कि सभी पत्तियां झड़ गई।
ऐसे में रानी जिस पेड़ के नीचे जाती उसी पेड़ कि पत्तिया अपने आप झड़ जाती। वन, सरोवर और पेड़ों की ऐसी दशा देखकर गाय चराते हुये ग्वालों ने अपने गुसाई ( स्वामी ) जी से सभी बातें बता दी। गुसाईं जी के आदेशानुसार ग्वाले रानी को पकड़कर गुसाईं जी के पास ले आए। रानी की मुख कांति और शरीर शोभा देखकर गुसाई जी जान गए कि यह कोई विधि की गति की मारी कुलीन अबला है। ऐसा सोचकर गुसाई जी ने रानी से कहा कि हे पुत्री, मैं तुमको पुत्री समान रखुंगा। तुम मेरे आश्रम में ही रहो, और मैं तुम्हें किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने दूंगा।
गुसाईं जी ऐसे वचन सुनकर रानी को थोड़ी धीरज मिली और वह आश्रम में ही निवास करने लगी। आश्रम में रानी खाना बनती तो उसके खाने में कीड़ पड़ जाते और जब वह पानी भरके लाती तो उसमें भी कीड़े ही कीड़े हो जाते।
अब तो गुसाईं जी भी बहुत दुखी हो गये और रानी से बोला कि बेटी तेरे पर कौन से देवता का कोप है, जिस से तेरी ऐसी दशा है। गुसाई जी कि बात सुनकर रानी ने कहा कि अपने पति के साथ भगवान शिवजी की पूजा करने नहीं जाने की पूरी कथा सुनाई।
रानी की बात सुनकर गुसाईं जी ने उसे इस कोप से मुक्त होने के लिए सोलह सोमवार व्रत की कथा पूरे विधि-विधान से करने को कहा। गुसाईं जी कि बात सुनकर वह प्रत्येक सोमवार का व्रत पूरे नियमों से करने लगी। जब रानी के पूरे सोलह व्रत हो गये और जब उसने सत्रहवें सोमवार का व्रत किया और रोज कि तरह भगवान भोलेनाथ जी कि पूजा कर रहीं थी। तो भगवान शिवजी के प्रभाव से राजा के मन में अपनी रानी का विचार उत्पन्न हुआ। और सोचा कि मेरी रानी को गए हुए बहुत समय बीत गया, न जाने कहा-कहा भटकती होगी। मुझे उसे ढूंढना चाहिऐ।
राजा ने यह सोचकर अपनी रानी कि तलाश में चारों दिशाओ में अपने सैनिकों को भेजा। सैनिक अपनी रानी को ढूढंते हूए गुसाई जी के आश्रम में आ पहुंचे। सैनिक अपनी रानी को वहां पाकर पुजारी जी से अपनी रानी को साथ भेजने के लिए कहा। किन्तु गुसाईं जी ने मना कर दिया, और सैनिक चुपचाप लौट गये। राजा को सभी बातें बतायी, तब राजा स्वयं रानी को लेने गुसाईं जी के आश्रम आये और पुजारी से प्रार्थना करते हुए बोले महाराज! जो देवी आपके आश्रम में रहती है। वो मेरी पत्नी है, शिवजी के कोप से मैनें इसका त्याग कर दिया था।
अब इस पर से भगवान शिवजी का काेप शांत हो गया है। इसलिए मैं इसे लेने के लिए आया हूं आपकी आज्ञा हो तो मैं इसे ले जा सकता हूं। गुसाईं जी ने राजा के वचनों को सत्य समझकर रानी को राजा के साथ जाने की आज्ञा दे दी। गुसाई जी कि आज्ञा पाकर रानी अपने पति के साथ अपने राज्य के लिए चल दी। रानी के आने कि खबर पाकर राज्य के निवासी अनेक प्रकार के बाजे-बजाने लगे, नगर के दरवाजे पर तोरण बन्दनवारों से विविध-विधि से नगर को सजाया। नगर में घर-घर में मंगल गान होने लगे, पंडितों ने विविध वेद मंत्रो का उच्चारण करके अपनी रानी का स्वागत किया। इस प्रकार रानी ने अपनी राजधानी में पुन: प्रवेश किया।
राजा ने अपनी रानी के आने कि खुशी में ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दानादि देकर संतुष्ट किया। याचकों को धन-धान्य दिया, और पूरी नगरी में जगह-जगह सदाव्रत खुलवाएं। जहां भूखों और गरीबों को खाने को मिला। इस प्रकार राजा रानी भगवान भोलनाथजी की कृपा से सभी प्राकर के सुख भागते हुए और सोलह सोमवार व्रत की कथा करते रहे। अंत समय में अनेक प्रकार के सुख भोगते हुए शिवपुरी को पधारे।
इसी कारण कहते हैं कि जो भी मनुष्य भगवान भोलेनाथ जी कि भक्ति मन,वचन,कर्म द्वारा सोलह सोमवार के व्रत पूरे विधि-विधान से करेगा। वह इस मृत्यु लोक से समस्त सुख को भोगकर अन्त में भगवान के चरणों में शिवपुरी को प्राप्त होगा और इस व्रत के करने से सबके मनोरथ भी पूर्ण होते हैं।
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