Ramayana, shatrughna meet with laxman, ram during vanvas, parampara: नियति के कुचक्र में फंस कर अयोध्या नरेश के दो राजकुमार अपना अधिकार त्यागने की लड़ाई लड़ रहे थे, वहीं अन्य दो राजकुमार इस पारिवारिक द्वंद से बिल्कुल ही अछूते एक-दूजे पर न्योछावर हुए जा रहे थे। दोनों सुमित्रानंदन कभी सत्ता को अपना विषय समझे ही नहीं थे, माता ने बचपन से ही उनमें सेवा और बड़ों के प्रति समर्पण का भाव भरा था। वे राम और भरत के प्रति समान श्रद्धा रखते हुए दूर से ही इस समस्या को सुलझते हुए देख रहे थे।
तय हो चुका था कि राम चौदह वर्ष बाद ही वनवास से वापस लौटेंगे, तब तक भरत उनकी ओर से अयोध्या के कार्यकारी सम्राट होंगे। अब अयोध्या के नगर जन उदास हो कर वापसी की तैयारी कर रहे थे।
लखन अपने अनुज के लिए वन से फल लाए थे और बड़े ही प्रेम से उन्हें धो-धो कर खिला रहे थे। फिर अपने उत्तरीय से उनके मुंह में लगे जूठन को पोछते हुए बोले, 'कुल में सबका ध्यान रखना शत्रुघ्न! यही हमारा धर्म है।'
शत्रुघ्न ने सिर हिला कर सहमति दी। लखन ने आगे कहा, 'माताओं का विशेष ध्यान रखना शत्रुघ्न! विशेष रूप से बड़ी मां और छोटी मां का... हम उनका दुख तो कम नहीं कर सकते, पर उन्हें धीरज बढ़ाये रखने का प्रयत्न तो कर ही सकते हैं। उनके साथ बने रहना...'
शत्रुघ्न ने पुन: सिर हिलाया। लखन बोलते रहे, 'भैया भरत का भी ध्यान रखना अनुज! वे बहुत ही व्यथित हैं। नियति ने उनके साथ बहुत ही बुरा व्यवहार किया है। उन्हें बड़े भैया का स्नेह भी तुम्हें ही देना होगा और हम दोनों अनुजों का सहयोग भी तुम्हें अकेले ही देना होगा।
शत्रुघ्न ने फिर शीश हिला दिया। लखन आगे बोले, 'अच्छा सुनो! स्वयं का भी ध्यान रखना। तुम्हारे तीनों बड़े भाई कहीं भी रहें, तुम पर उनका स्नेह उनका आशीष बरसता ही रहेगा। खुश रहना...'
शत्रुघ्न अब स्वयं को नहीं रोक सके। लखन की आंखों में आँख डाल कर कहा, 'और भाभी के लिए कुछ नहीं कहेंगे भैया? आपको उनकी जरा भी चिंता नहीं?'
लखन कुछ पल के लिए शांत हो गए। फिर गंभीर भाव से कहा, 'उनसे कहना, मैं सदैव महादेव से प्रार्थना करता हूं कि उनका तप पूर्ण हो। परीक्षा की इस घड़ी में हमें अपने कर्तव्यों का स्मरण रहे, यही हमारी पूर्णता है। और सुनो! मुझे सचमुच उनकी चिंता नहीं होती... मुझे स्वयं से अधिक भरोसा है उन पर!'
'भैया! भाभी भी आई हैं, आप उनसे नहीं मिलेंगे?'
लक्ष्मण का मुंह पल भर के लिए सूख गया, पर शीघ्र ही सामान्य भी हो गए। मुस्कुरा कर कहा, 'बड़े नटखट हो! सब अपनी ही ओर बोल रहे हो न? सुनो! हमें मिलने की आवश्यकता नहीं, हम साथ ही हैं। हमने मिल कर तय किया था कि चौदह वर्षों तक स्वयं को भूल कर केवल परिवार के लिए जिएंगे। अपने कर्तव्य पर डटे रह कर हम अलग होते हुए भी साथ ही होंगे...'
शत्रुघ्न चुपचाप देखते रहे अपने बड़े भाई की ओर, जैसे किसी देवता की मूरत को निहार रहे हों। फिर मुस्कुरा कर कहा, 'मैं सचमुच परिहास ही कर रहा था भइया। भाभी ने कहा है, 'आप उनकी चिंता न कीजिएगा... राजा जनक की बेटी अयोध्या राजमहल के आंगन को अपने आंचल से बांध कर रखेगी। कुछ न बिखरेगा, कुछ न टूटेगा...'
शत्रुघ्न की आंखें भीगने लगी थीं। लखन ने उन्हें प्रेम से गले लगा लिया।
- क्रमश:
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