कड़वे प्रवचन से मीठी बात कहते हैं जैन मुनि तरुण सागर जी महाराज

देश दुनिया में कड़वे प्रवचन के लिए प्रसिद्ध क्रांतिकारी राष्ट्र संत जैन मुनि श्री तरुण सागर जी महाराज कुछ समय से बीमार हैं । मुनिश्री ने अपने गुरु की आज्ञा से संल्लेखना समाधि शुरू कर दी है, और आजीवन अन्न-जल का त्याग भी कर दिया है । जैन संत तरूण सागर जी महाराज अपने कड़वे प्रवचनों के कारण ही जन जन में लोकप्रिय हुए । वे तीखे और ओजस्वी विचारों से लोगों को मीठी बातें बताते हुए श्रेष्ठ जीवन जीने की राह सिखाते थे और उनके कड़वे प्रवचनों में अमृत की मधुर मिठास भरी रहती थी । जानिए क्यों ले रहे हैं तरूण सागर जी महाराज संल्लेखना समाधि ।

 

क्रांतिकारी राष्ट्र संत जैन मुनि श्री तरुण सागर जी महाराज लगभग पिछले 35 सालों से मुनिधर्म का पूरा पालन करते रहे है । संत मुनिश्री ने जैन मुनि की चर्या का पूरा पूरा ध्यान रख इतनी कठिन स्थिति में भी सारे इलाज बंद कर भगवान की भक्ति में लीन रहने का निर्णय लिया है । दिल्ली में कई जैन संत उनकी संथारा, संल्लेखना अथवा समाधिमरण समाधि (मृत्यु महोत्सव) कराने उनके पास पहुंच रहे हैं । साथ ही पूरे जैन समाज के साथ उनके चाहने वाले भक्तों ने मुनि श्री के स्वास्थ्य लाभ के लिए प्रार्थना शुरू कर दी है, और समस्त जैन समाज ने देश भर में अपने अपने स्थानों पर नमोकार महामंत्र का जप करते हुए उनके स्वास्थ्य के लिए मंगल भावना कर रहे है ।

tarun sagar ji

मुनिश्री इसलिए ले रहे है संल्लेखना, समाधि


अपनी कड़वी ओजस्वी वाणी से अनेकों का जीवन बदलने वाले प्रसिद्ध जैन संत तरूण सागर जी जीवन के अंतिम समय में जैन धर्म की परम्परा का निर्वाह करते हुए संथारा, संल्लेखना अथवा समाधिमरण समाधि ले रहे है । जैन दर्शन में आत्मशुद्धि द्वारा भव-बंधनों की यात्रा से विराम पाने की सशक्त एवं सनातन परंपरा है । संन्यास-मरण न सिर्फ जैन धर्म में अपितु सभी धर्मों में स्वीकार किया गया है । देह और देही (आत्मा) की भिन्नता को दर्शाते हुए श्रीमद भागवत गीता के दूसरे अध्याय में भी भगवान श्रीकृष्ण ने विशद व्याख्या करते हुए स्पष्ट तौर पर समझाया है कि आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है, शाश्वत है तथा देह विनाशक, अस्थिर, परिमनणशील, मरण/क्षरणशील धर्मा है । जिस प्रकार हम सामान्य तौर पर वस्त्र बदले जाते हैं, वैसे ही आत्मा एक योनि से दूसरी योनि को प्राप्त होती है । जहां एक जीव अपने दुष्कर्मों से नरक के दुख भोगता है, तो दूसरा अपने सत्कर्मों द्वारा स्वर्ग तथा मोक्ष का अधिकारी भी होता है । मोक्ष मार्ग में लगने वाला जीव पूर्ण रूप से विकार रहित होना अनिवार्य होता है ।

 

संथारा, संल्लेखना अथवा समाधिमरण धारण करने वाला साधक अपनी भोग-लिप्सा पर नियंत्रण करते हुए व्रत, तप चारित्र, शील द्वारा अपनी काया को कृष करते हुए अपनी आत्मिक शक्ति को बढ़ाता है । दूसरों के प्रति जाने-अनजाने में किए गए अपराध भावों की सभी से क्षमा मांगते हुए शुद्ध अंत:करण से उन्हें भी क्षमा करता है । समस्त परिजन पुरजन शत्रु, मित्र आदि से मोह रहित हो अपनी शारीरिक शक्ति के अनुसार, क्रमश: आहार, पानी को त्याग कर भगवत भक्ति में लीन होता है । क्रोध, बैर, अहंकार, माया, मोह, विषाद आदि के भावों से रहित होने पर ही समाधि सधती है अन्यथा जीव दुर्गति का पात्र होता है । समाधिमरण हमेशा अपने गुरु के निर्देशन में तथा सधर्म भाइयों के साक्षी में लिया जाता है (प्राण विसर्जन किया जाता है), और इसमें उम्र का कोई बंधन नहीं है । संथारा, संल्लेखना या समाधिमरण हर कोई धारण नहीं कर सकता ।


संल्लेखना के दो भेद होते हैं- काय संल्लेखना एवं कषाय संल्लेखना। दोनों को धारण करता हुआ अपनी काया एवं कषायों को कृष करते हुए अपनी आत्मशुद्धि द्वारा मुक्ति (बैकुंठ) की ओर अग्रसर होता है। अत: यह पूर्णत: धार्मिक क्रिया है जिसमें आत्मशुद्धि द्वारा अपनी आत्मा को उत्कृष्ट बनाया जाता है।

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