पितृ पक्ष में श्राद्ध से तुष्ट होने पर अपनी संतानों को दीर्घायु, संतति, धन, यश जैसे अनेक सुख प्रदान करते हैं, पितर

चौरासी लाख योनियों में से एक योनि पितृ योनि भी कही जाती है, साधारणत: हम अपने पूर्वजों को पितर मानते हैं, लेकि यह पितर की संकुचित परिभाषा है । पितर विभिन्न लोकों में रहने वाली वह दिव्यात्माएं एवं सामान्य जीवात्माएं हैं, जिनसे देवता मनुष्य आदि की उत्पत्ति होती है, और यह अत्यंत शक्तिशाली होते हैं । अगर पितृ किसी के उपर तुष्ट हो जाएं तो उन्हें दीर्घायु, संतति, धन, यश एवं सभी प्रकार के सुख प्रदान करते हैं, वहीं अगर असंतुष्ट या नाराज हो जाये तो मनुष्य की आयु संतति धन सभी प्रकार के सुखों को हर भी लेते हैं और मृत्यु के पश्चात उन्हें नरकलोक प्रदान करते हैं ।

 

इन शास्त्रों में- मनुस्मृति, मत्स्यपुराण, पद्मपुराण आदि में पितरों की अनेक श्रेणियां बताई गई हैं । सामान्यत: हम पितरों को दो वर्गों में विभक्त कर सकते है- एक तो दिव्य पितर, और दूसरा पूर्वज पितर ।

 

1- दिव्य पितर- दिव्य पितर वे पितर हैं जिनसे देवता मनुष्य आदि उत्पन्न हुए । इन पितरों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र मनु के विभिन्न ऋषि पुत्रों से हुई है । दिव्य पितरों के सात गण माने गए हैं-


(1)- अग्निष्वात्त- इनकी उत्पत्ति मनु के पुत्र महर्षि मरीचि से हुई है अग्निष्वात देवताओं के पितर हैं । ये "सोम" नामक लोकों में निवास करते हैं । इन पितरों का देवता भी सम्मान करते हैं ।
(2)- बर्हिर्षद- इनकी उत्पत्ति महर्षि अत्रि से हुई है यह देव, दानव, यक्ष,गंधर्व, सर्प,राक्षस, सुपर्ण एवं किन्नरों के पितर हैं । यह स्वर्ग में स्थित "विभ्राज लोक "में रहते हैं । जो इस लोक में निवास करने वाले पितरों के लिए श्राद्ध करते हैं, उन्हें भी इस लोक की प्राप्ति होती है ।


(3)- सोमसद- सोमसद महर्षि विराट् के पुत्र हैं यह साध्यों के पितर हैं ।
(4)- सोमपा- सोमपा महर्षि भृगु के पुत्र हैं ये ब्राह्मणों के पितर हैं । ये " सुमानस लोक "में रहते हैं । यह लोग 'ब्रह्मलोक' के ऊपर स्थित है ।


(5)- हविर्भुज या हविष्यमान- महर्षि अंगिरा के पुत्र हविर्भुज हैं । ये क्षत्रियों के पितर हैं । ये मार्तण्ड मण्डल लोक में रहते हैं । यह स्वर्ग और मोक्ष फल प्रदान करने वाले हैं । तीर्थों में श्राद्ध करने वाले श्रेष्ठ क्षत्रिय इन्हीं के लोग में जाते हैं ।
(6)- आज्यपा- आज्यपा वेश्यों के पितर हैं, इनके पिता महर्षि पुलस्त्य हैं । ये 'कामदुध लोक' में रहते हैं । इन पितरों का श्राद्ध करने वाले व्यक्ति इस लोक में पहुंचते हैं ।


(7)- सुकालि- सुकालि महर्षि वशिष्ठ के पुत्र हैं ये शूद्रों के पितर माने गए हैं ।
उपरोक्त में से प्रथम तीन मूर्तिरहित और शेष चार मूर्तिमान पितर कहे गए हैं । उक्त सात प्रमुख पितृ गण के अलावा और भी दिव्य पितर हैं। उदाहरण के लिए अनग्निदग्ध, काव्य, सौम्य , आदि ।

 

2- पूर्वज पितर- इनमें वे पितर सम्मिलित होते हैं, जो कि किसी कुल या व्यक्ति के पूर्वज हैं । इनका ही एकोदिष्ट आदि श्राद्ध होता है । इन्हें दो वर्गों में विभक्त किया जाता है ।


(1)- सपिण्ड पितर- मृत पिता, पितामह एवं प्रपितामह के तीन पीढ़ी के पूर्वज सपिण्ड पितर कहलाते हैं यह पिण्डभागी होते हैं ।


(2)- लेपभागभोजी पितर- सपिण्ड पितरों से ऊपर तीन पीढ़ी तक के पितर लेपभागभोजी पितर कहलाते हैं । ये पितर चंद्रलोक के ऊपर स्थित " पितृलोक" में रहते हैं ।


उपरोक्त समस्त पितरों को संतुष्टि के आधार पर संतुष्ट एवं असंतुष्ट पितर में भी वर्गीकृत किया जाता है ।



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