क्या गया जी श्राद्ध से होती है मोक्ष की प्राप्ति !

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shradh 2024 : हिन्दू धर्म में श्राद्ध की बड़ी महिमा बताई गई है। शास्त्र का वचन है- 'श्रद्ध्या इदं श्राद्धम्' अर्थात् पितरों के निमित्त श्रद्धा से किया गया कर्म ही श्राद्ध है। 

 

श्राद्ध पक्ष में पितृगणों (पितरों) के निमित्त तर्पण व ब्राह्मण भोजन कराने का विधान है किंतु जानकारी के अभाव में अधिकांश लोग इसे उचित रीति से नहीं करते जो कि दोषपूर्ण है क्योंकि शास्त्रानुसार 'पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवता:' अर्थात् देवता भाव से प्रसन्न होते हैं और पितृगण शुद्ध व उचित विधि से किए गए श्राद्धकर्म से। 

 

शास्त्रानुसार श्राद्ध करने से दिवंगत जीवात्मा को मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहां ’मोक्ष’ से आशय अत्यंत गूढ़ अर्थ में है क्योंकि 'मोक्ष' का अर्थ है जीवात्मा का जन्म-मृत्यु के आवागमन से मुक्त हो जाना। जिस प्रकार बूंद; जो कि सागर का ही अंश है उस बूंद का अपने अंशी सागर में ही समा जाना, विलीन हो जाना। जब अंशरूप जीवात्मा अपने अंशी परमात्मा में समाहित हो जाती है उसी का नाम 'मोक्ष' है। 

 

अब यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है क्या किसी दूसरे के द्वारा सम्पादित किए गए कर्म से जीवात्मा का परमात्मा से मिलन सम्भव है? 

 

क्या किसी के भोजन से करने आपकी क्षुधातृप्ति हो सकती है? 

 

निश्चय ही नहीं। 'मोक्ष' प्राप्ति के लिए तो जीवात्मा को स्वयं ही प्रयत्न करना होगा किंतु उसके लिए जीवात्मा को देह अर्थात् शरीर की आवश्यकता होगी क्योंकि शास्त्र का वचन है- 'शरीरमाद्यं खलु साधनं...'। सांसारिक मृत्यु में जीव की केवल भौतिक देह ही नष्ट होती है, सूक्ष्म् देह के साथ वह जीव फिर अपने कर्मानुसार अगले जन्म की यात्रा पर आगे बढ़ता है। 

 

इस सूक्ष्म शरीर में उसके समस्त मनोभाव उसी प्रकार सुरक्षित रहते हैं जैसे काष्ठ में अग्नि। वह इन्हीं मनोभावों एवं अपने कर्मानुसार पुन: गर्भधारण नवीन देह की प्राप्ति करता है। सामान्यत: अधिकांश जीवात्माएं सामान्य मनोभावों वाली होती है किंतु कुछ विरली जीवात्माएं असाधारण मनोभावों वाली होती हैं जिनमें श्रेष्ठ मनोभाव एवं निकृष्ट मनोभाव दोनों ही प्रकार के होते हैं। इन्हीं दो श्रेणियों की जीवात्माओं को पुन: गर्भ एवं नवीन देहप्राप्ति में विलंब होता है। 

 

यहां विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रेष्ठ मनोभावों वाली जीवात्माएं (सूक्ष्मशरीर) अपने अशरीरी रूप में रहते हुए किसी का अनिष्ट या हानि नहीं करतीं किंतु निकृष्ट मनोभावों वाली जीवात्मा (सूक्ष्मशरीर) अपने किसी विशेष कामनारूपी अवरोध के कारण अपने अशरीरी रूप में होते हुए नवीन देह की प्राप्ति हेतु कोई संकेत या हानि कर सकतीं हैं। 

 

हिन्दू धर्म में जन्म लेने वाला बच्चा जीवनपर्यंत अपने हिन्दू संस्कारों से ही संस्कारित होता है, अत: श्राद्ध इत्यादि कर्म में उसकी पूर्णश्रद्धा व विश्वास होता है। अब यदि देहावसान के बाद उसके इसी विश्वास और श्रद्धा के अनुरूप उसके निमित्त श्राद्धकर्म ना किए जाएं तो उसके यही अपेक्षित मनोभाव उस जीवात्मा के नवीन गर्भधारण और नूतन देहप्राप्ति में बाधक बन सकते हैं, इसलिए प्रत्येक हिन्दू धर्मावलंबी को अपने दिवंगत परिजनों की जीवात्मा की मोक्षपर्यंत आगे की यात्रा के निमित्त श्राद्धकर्म करना नितांत आवश्यक है।


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क्या ब्रह्मकपाली (बदरिकाश्रम) के बाद 'गया' श्राद्ध करना उचित है? 

 

हमारे शास्त्रों ने श्राद्ध सम्पादित करने के लिए घर, गौशाला, पवित्र नदी का तट, संगम, तीर्थ, प्रयाग, कुशावर्त, पुष्कर, गया एवं ब्रह्मकपाली (बदरिकाश्रम) को उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माना है। आज जनमानस में यह भ्रम बहुत ही गहरे स्थापित हो चुका है कि 'गया' श्राद्ध करने के बाद वार्षिक (पार्वण) श्राद्ध और तर्पण आदि कर्म नहीं करने चाहिए। 
 

हम 'वेबदुनिया' के पाठकों को शास्त्रानुसार यह स्पष्ट निर्देश करना चाहेंगे कि यह धारणा नितांत कपोल-कल्पित है, शास्त्रानुसार 'गया' श्राद्ध एक नित्य श्राद्ध है, जिसे करने के उपरांत भी नित्य तर्पण और पार्वण श्राद्ध करना आवश्यक है क्योंकि 'गया' के बाद शास्त्रों ने सर्वश्रेष्ठ 'ब्रह्मकपाली' में अंतिम श्राद्ध की व्यवस्था दी है, लेकिन 'ब्रह्मकपाली' में श्राद्ध करने के उपरांत 'गया' या अन्यत्र किसी भी स्थान पर पिंडदानात्मक श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। शास्त्रानुसार 'ब्रह्मकपाली' अंतिम श्राद्ध व्यवस्था है। 

 

सनत्कुमार संहिता के अनुसार-

 

शिर:कपालं यत्रैत्तपपात ब्रह्मण: पुरा।

तत्रैव बदरीक्षेत्रे पिण्डं दातुं प्रभु: पुमान्।।

 

मोहाद् गयायां दद्याद्य: पितृन् पातयेत् स्वकान्।

लभते च तत: शापं नारदैतन्मयोदितम्।।

 

-'प्राचीन काल में जहां ब्रह्मा का शिर: कपाल गिरा था वहीं बदरीक्षेत्र में जो पुरुष पिंडदान करने में समर्थ हुआ, यदि वह मोह के वशीभूत होकर 'गया' में पिंडदान करता है तो वह अपने पितरों का अधपतन करा देता है और उनसे शापित होता है अर्थात् पितर उसका अनिष्ट चिंतन करते हैं। 

 

हे नारद! मैंने आपसे यह कह दिया है।' अत: 'ब्रह्मकपाली' (बदिराकाश्रम) के बाद 'गया' में श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए, अपितु 'गया' में श्राद्ध के उपरांत ही 'ब्रह्मकपाली' में श्राद्धकर्म अवश्य व अनिवार्यरूपेण करना चाहिए।

 

-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया

प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र

सम्पर्क: astropoint_hbd@yahoo.com
 

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