साहित्य से बढ़कर मधुर और कुछ भी नहीं
आचार्य विनोबा भावे जी कहा करते थे कि साहित्य से मुझे हमेशा बहुत उत्साह होता है । साहित्य-देवता के लिये मेरे मन में बड़ी श्रद्धा है । एक पुरानी बात याद आ रही है । बचपन में करीब 10 साल तक मेरा जीवन एक छोटे से देहात में ही बीता । बाद के 10 साल तक बड़ौदा जैसे बड़े शहर में बीता । जब मैं कोंकण के देहात में था, तब पिता जी कुछ अध्ययन और काम के लिये बड़ौदा में रहते थे । दिवाली के दिनों में अक्सर घर पर आया करते थे ।
एक बार माँ ने कहा- “आज तेरे पिता जी आने वाले है, तेरे लिये मेवा-मिठाई लायेंगे ।” पिताजी आए । फौरन मैं उनके पास पहुँचा और उन्होंने अपना मेवा मेरे हाथ में थमा दिया । मेवे को हम कुछ गोल-गोल लड्डू ही समझते थे । लेकिन यह मेवे का पैकेट गोल न होकर चिपटा-सा था । मुझे लगा कि कोई खास तरह की मिठाई होगी । खोलकर देखा, तो किताबें थीं । उन्हें लेकर मैं माँ के पास पहुँचा और उनके सामने धर दिया । माँ बोली-बेटा! तेरे पिताजी ने तुझे आज जो मिठाई दी है, उससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।” वे किताबें रामायण और भागवत की कहानियों की थीं, यह मुझे याद है ।
आज तक वे किताबें मैंने कई बार पढ़ीं । माँ का यह वाक्य मैं कभी नहीं भूला कि-”इससे बढ़कर कोई मिठाई हो ही नहीं सकती ।” इस वाक्य ने मुझे इतना पकड़ रखा है कि आज भी कोई मिठाई मुझे इतनी मीठी मालूम नहीं होती, जितनी कोई सुन्दर विचार की पुस्तक ! वैसे तो भगवान् की अनन्त शक्तियाँ हैं, पर साहित्य में उन शक्तियों की केवल एक ही कला प्रकट हुई है । भगवान् की शक्ति की यह कला कवियों और साहित्यिकों को प्रेरित करती है । कवि और साहित्यिक ही उस शक्ति को जानते हैं, दूसरों को उसका दर्शन नहीं हो पाता ।
सार- इसलिए अगर कोई व्यक्ति जीवन में महान बनना चाहता है तो महापुरूषों के सत्साहित्यों का सेवन नियमित करते रहें । सत्साहित्य साक्षात देवता है जो सही प्रकाश देता हैं ।
( आचार्य विनोबा भावे )
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