आध्यात्मिक आदर्श के मूर्तिमान देवता भगवान शिव,
शिव के स्वरूप, अलंकार और जीवन सम्बन्धी घटनाओं का और भी विशद् वर्णन मिलता है । ऐसे प्रत्येक प्रसंग में या तो किसी दार्शनिक तत्व का विवेचन सन्निहित है अथवा व्यावहारिक आचरण की शिक्षा दी गई है । अगर शिव का शरणागत शिव जी के स्वरूप की प्रेरणाओं को जीवन में धारण कर लें तो जीवन संसार की सभी कामनाएं भस्म होकर जीवन दिव्य प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता हैं ।
शिव का स्वरूप— भगवान् शंकर के स्वरूप में जो विचित्रतायें हैं वह किसी मनुष्य की देह में सम्भव नहीं इसलिए उसकी सत्यता संदिग्ध मानी जाती है । पर हमें यह जानना चाहिये कि यह चित्रण सामान्य नहीं, अलंकार है जो मनुष्यों में योग-साधनाओं के आधार पर जागृत होते हैं ।
माथे पर चन्द्रमा— चन्द्रमा मन की मुदितावस्था का प्रतीक है अर्थात् योगी का मन सदैव चन्द्रमा की भांति उत्फुल्ल, चन्द्रमा की भांति खिला निःशंक होता है । चन्द्रमा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक भी है अर्थात् उसे जीवन की अनेक गहन परिस्थितियों में रहते हुए भी किसी प्रकार का विभ्रम अथवा ऊहापोह नहीं होता । वह प्रत्येक अवस्था में प्रमुदित रहता है, विषमताओं का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
नीलकंठ— पुराणों में ऐसी कथा आती है कि देवों और दानवों का रक्तपात बचाने के लिए भगवान शंकर ने विष पी लिया था और तब से इनका कंठ नीला है, अर्थात् इन्होंने विष को कंठ में धारण किया हुआ है। इस कथानक का भी सीधा साधा सम्बन्ध योग की सिद्धि से ही है । योगी पुरुष अपने सूक्ष्म शरीर पर अधिकार पा लेता है, जिससे उसके स्थूल शरीर पर बड़े तीक्ष्ण विषों का भी प्रभाव नहीं होता । उन्हें भी वह सामान्य मानकर ही पचा लेता है । यह बात इस तरह भी है कि संसार के मान अपमान, कटुता-क्लेश आदि दुख-कष्टों का उस पर कोई प्रभाव नहीं होता । उन्हें भी वह साधारण घटनायें मानकर आत्मसात् कर लेता है और संसार का कल्याण करने की अपनी आत्मिक वृत्ति में निश्चल भाव से लगा रहता है । दूसरे व्यक्तियों की तरह लोकोपकार करते समय उसे स्वार्थ आदि का कोई ध्यान नहीं होता । वह निर्विकार भावना की भलाई में जुटा रहता है । खुद विष पीता है पर औरों के लिए अमृत लुटाता रहता है ।
विभूति रमाना— शिव ने सारे शरीर पर भस्म रमा रखी है । योग की पूर्णता पर संयम सिद्धि होती है । योगी अपने वीर्य को शरीर में रमा लेते हैं जिससे उसका सौन्दर्य फूट पड़ता है । इस सौन्दर्य को भस्म के द्वारा अपने आप में रमा लेता है । उसे बाह्य अलंकारों द्वारा सौन्दर्य बढ़ाने की आवश्यकता नहीं रहती । अक्षुण्ण संयम ही उसका अलंकार बन गया है, जिससे उसका स्वास्थ्य और शरीर सब कांतियुक्त हो गये हैं ।
तृतीय नेत्र— योग की भाषा में इसे नेत्रोन्मीलन या आज्ञा-चक्र का जागरण भी कहते हैं । उसका सम्बन्ध गहन आध्यात्मिक जीवन से है । घटना प्रसंग जुड़ा हुआ है कि शिवजी ने एक बार तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भी जला दिया था योगी का यह तीसरा नेत्र यथार्थ ही बड़ा महत्व रखता है । सामान्य परिस्थितियों में वह विवेक के रूप में जागृत रहता है, पर वह अपने आप में इतना सशक्त और पूर्ण होता है कि कामवासना जैसे गहन प्रकोप भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं कर पाते । उन्हें भी जला डालने की क्षमता उसके विवेक में बनी रहती है । इसे वैज्ञानिक बुद्धि का प्रतिनिधि भी कहा जा सकता है । पर सबका तात्पर्य यही है कि तृतीय नेत्र होना साधारण क्षमता से उठाकर विशिष्ट श्रेणी में पहुंचा देना है । भारतीय संस्कृति का यह वैज्ञानिक पहलू कहीं अधिक मूल्यवान् भी है ।
from Patrika : India's Leading Hindi News Portal https://ift.tt/2BXsjJl
EmoticonEmoticon