भौतिक अथवा आध्यात्मिक कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, उसमें उन्नति करने के लिए लगन और एकाग्रता के साथ निष्ठा की आवश्यकता होती है। बिना सच्ची लगन और एकनिष्ठा के सिद्धि पा लेना संभव नही होता। गुरुनानक ने अपने लिये भक्ति का मार्ग चुना और अपनी निष्ठा के बल पर वे एक महान् संत बने और समाज में उनकी पूजा-प्रतिष्ठा हुई। उनके जीवन की तमाम घटनाएं उनकी इस निष्ठ की साक्षी हुई है। नानक जब किशोरावस्था में थे, तभी से वे अपने उद्देश्य की पूर्ति में लग गये थे। यह आयु खेलने-खाने की होती है। नानक भी खेला करते थे, पर उनके खेल दूसरों से भिन्न होते थे। जहाँ और लडके गुल्लीडंडा, गेंद बल्ला, कबड्डी आदि का खेल खेला करते थे, वहाँ नानक भगवान् की पूजा, उपासना का खेल और साथियों को प्रसाद बांटते थे।
[MORE_ADVERTISE1][MORE_ADVERTISE2]एक बार वे इस प्रकार के खेल मे संलग्न थे। भोजन का समय हो गया था। कई बार बुलावा आया, लेकिन वे खेल अधूरा छोड्कर नहीं गए। अंत मे उनके पिता उन्हें जबरदस्ती उठा ले गए। भोग लगाकर प्रसाद बाँटने का खेल बाकी रह गया। नानक को खेल में विघ्न पड़ने का बडा दुःख हुआ, लेकिन उन्होंने न तो किसी से कुछ कहा और न रोए-धोए ही, तथापि वे गंभीरतापूर्वक मौन हो गये और भोजन न किया। बहुत कुछ मनाने, कहने और कारण पूछने पर भी जब नानक ने कुछ उत्तर नहीं दिया और खिलाने पर भी जब ग्रास नहीं निगला तो उनके पिता को चिंता हुई कि बालक को कहीं कोइ बीमारी तो नहीं हो गई।
[MORE_ADVERTISE3]वैद्य बुलाकर नानक को दिखलाया गया। वैद्य आया और उसने भी जब पूछताछ करने पर कोई उत्तर न पाया और खिलाने से ग्रास स्वीकार नहीं किया तो उसने उनके मुंह में उंगली डालकर यह परीक्षा करनी चाही कि लड़के का गला तो कहीं बंद नहीं हो गया है, इस पर नानक से न रहा गया और वे बोले वैद्य जी, आप अपनी बीमारी का उपचार करिए। मेरी बीमारी तो यही ठीक करेगा जिसने लगाई है। नानक की गूढ़ बात सुनकर उनके पिता ने उनकी मानसिक स्थिति समझ ली और फिर उन्हें उनके प्रिय खेल से कभी नहीं उठाया।
इस प्रकार जब वे पाठशाला में पढ़ने के लिए भेजे गए, तब अध्यापक ने उन्हें तख्ती पर लिखकर वर्णमाला पढा़नी शुरू की। उन्होंने 'अ' लिखा और नानक से कहा-कहो 'अ'। नानक ने कहा 'अ'। उसके बाद अध्यापक ने 'अ' लिखा और कहा- कहो 'अ'। नानक ने कहा-'अ' नाम भगवान् का रूप। जब यही पढ़ लिया तो अब आगे पढ़कर क्या करूंगा?
अध्यापक ने समझाया तुम मेरे पास पढ़ने और ज्ञान सीखने आए हो। बिना विद्या पढे ज्ञानी कैसे बनोगे? नानक ने कहा कि आप तो मुझे समझ में आने वाली विद्या पढ़ाइए, जिससे परमात्मा का ज्ञान हो, उसके दर्शन मिलें। आपकी यह शिक्षा मेरे लाभ की नहीं है। अध्यापक ने फिर कहा- यह विद्या यदि तुम नही पढो़गे तो संसार मै खा-कमा किस तरह सकोगे ? खाने कमाने के लिए तो यह विद्या पडनी जरूरी है।' नानक ने उत्तर दिया-'गुरुजी! आदमी को खाने के लिए चाहिए ही कितना "एक मुट्ठी अन्न। वह तो सभी आसानी से कमा सकते ही हैं, उसकी चिंता में भगवान् को पाने की विद्या छोडकर और विद्याएँ पढने की क्या आवश्यकता", "मुझे तो वह विद्या सिखाइए, जिससे मैं मूल तत्व परमात्मा के पाकर सच्ची शांति पा सकूं।
गुरु नानक की बातों में उनका हृदय, उनकी आत्मा और भगवान् के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा बोल रही थी। उनकी बातों का प्रभाव अध्यापक पर पडा़ जिससे कि वे दुनियादारी से विरत होकर भगवान के सच्चे भक्त बन गए। ऐसी थी नानक की निष्ठा और परमात्मा को प्राप्त करने की लगन। इसी आधार पर उनकी उपासना और साधना सफल हुई। वे एक उच्चकोटि के महात्मा बने। उनकी वाणी बोलती थी और उनका हृदय उसका मंदिर बन गया था। वे दिन-रात भगवान् की भक्ति में तन्मय रहकर लोक-कल्याण के लिए उपदेश करते और लोगों को सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन भगवान् की भक्ति और संसार का कल्याण करने में लगा दिया। हजारों-लाखों लोग उनके शिष्य बने। आज जो सिक्ख संप्रदाय दिखलाई देता है, वह गुरुनानक के शिष्यों द्वारा ही बना है। निष्ठा और लगन में बडी शक्ति होती है। उसके बल पर सांसारिक उन्नति तो क्या भगवान् तक को पाया जा सकता है। ऐसे महान थे गुरु नानक देव जी।
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