सनातन धर्म में अनेक देवी देवताओं की पूजा का विधान है, ऐसे में भारत में कई मंदिर हैं। जिनमें से कई देवी मंदिर अत्यधिक चमत्कारी भी हैं, जहां लगातार चमत्कार देखने को मिलते भी रहते हैं।
ऐसे में कुछ ऐसे अनोखे मंदिरों के बारे में आज हम आपको बता रहे हैं, जिनकी परंपराएं रोचक होने के साथ-साथ श्रद्धालुओं को चौंकाती भी हैं।
क्या आपने कभी ऐसे देवी मंदिर के बारे में सुना है जिसमें देवी मां का मस्तक किसी एक शहर में, जबकि धड़ दूसरे शहर व चरण किसी तीसरे शहर में हों, यदि नहीं तो आज हम आपको ऐसी ही एक देवी के बारे में बताने जा रहे है।
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दरअसल मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की बैरसिया तहसील में एक मंदिर स्थित है, जिसे प्राचीन हरसिद्धि माता मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का ऐतिहासिक महत्व है। दूर-दूर से मुराद लेकर आने वाले भक्त मां हरसिद्धि की उल्टे फेरे लगाकर परिक्रमा करते हैं। उल्टे फेरे लगाने से मातारानी भक्तों की हर मनोकामना पूरी करती हैं।
मन्नत पूरी होने पर यहां आकर भक्त सीधी परिक्रमा लगाकर आशीर्वाद लेते हैं। हर साल चैत्र नवरात्र एवं शारदीय नवरात्र के दौरान देश-प्रदेश से आने वाले लाखों श्रद्धालु मां के चरणों में शीश झुकाते हैं।
यहां देवी मां को लेकर ये किंवदंती है कि देवी मां का मस्तक उज्जैन में, चरण काशी में और धड़ तरावली (भोपाल) में विद्यमान है। कहा जाता है कि देवी मां ने उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की आराधना से प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए थे। नवरात्र में यहां आने वाले भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है।
मंदिर का इतिहास उज्जैन के शासक विक्रमादित्य से जुड़ा हुआ बताया जाता है। जिसके अनुसार विक्रमादित्य एक बार एक बालक को छुड़ाने काशी गए थे। वहां काशी नरेश से बालक के बदले सेवा का आग्रह किया। काशी नरेश सुबह मां की भक्ति करते थे, और मां वरदान देती थी। एक दिन विक्रमादित्य ने पूजा की।
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वरदान में उन्होंने उज्जैन चलने को कहा। इस पर देवी मां ने दो शर्तें रखीं। पहली चरण यहीं रहेंगे। दूसरी जहां सवेरा होगा, वहीं वह रुक जाएंगी। ऐसे में सुबह तरावली स्थित जंगल में हो गई और मां यहां विराजमान हो गईं।
बताया जाता है कि यहां जब से मां हरसिद्धि यहां विराजमान हुई हैं, तब से यहां धूना जलाया जा रहा है। यह कभी नहीं बुझा। इस धूने से निकली हुई अग्नि को खप्पर में रखकर मां की आरती की जाती है। महंत के अनुसार विक्रमादित्य ने 12 वर्ष तक यहां तपस्या की। बाद मां ने शीश के साथ चलने की बात कही, तब से मां हरसिद्धि के चरण की काशी में, धड़ तरावली और शीश की उज्जैन में पूजा की जाती है।
ऐसे समझें देवी माता के यहां आने की कथा...
-किंवदंती है कि दो हजार वर्ष पूर्व काशी नरेश गुजरात की पावागढ़ माता के दर्शन करने गए थे।
-वे अपने साथ मां दुर्गा की एक मूर्ति लेकर आए और मूर्ति की स्थापना की और सेवा करने लगे।
-उनकी सेवा से प्रसन्न होकर देवी मां काशी नरेश को प्रतिदिन सवा मन सोना देती थीं।
-जिसे वो जनता में बांट दिया करते थे।
-यह बात उज्जैन तक फैली तो वहां की जनता काशी के लिए पलायन करने लगी।
-उस समय उज्जैन के राजा विक्रमादित्य थे। जनता के पलायन से चिंतित विक्रमादित्य बेताल के साथ काशी पहुंचे।
-वहां वे भी मां की पूजा करने लगे।
-तब माता ने प्रसन्न होकर उन्हें भी सवा मन सोना दिया।
-विक्रमादित्य ने वह सोना काशी नरेश को लौटाने की पेशकश की।
-लेकिन काशी नरेश ने विक्रमादित्य को पहचान लिया और कहा कि तुम क्या चाहते हो।
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-तब विक्रमादित्य ने मां को अपने साथ ले जाने का अनुरोध किया। काशी नरेश के न मानने पर विक्रमादित्य ने 12 वर्ष तक वहीं रहकर तपस्या की।
-मां के प्रसन्न होने पर उन्होंने दो वरदान मांगे, पहला वह अस्त्र, जिससे मृत व्यक्ति फिर से जीवित हो जाए और दूसरा अपने साथ उज्जैन चलने का।
-तब माता ने कहा कि वे साथ चलेंगी, लेकिन जहां तारे छिप जाएंगे, वहीं रुक जाएंगी।
-लेकिन उज्जैन पहुंचने सेे पहले तारे अस्त हो गए। इस तरह जहां पर तारे अस्त हुए मां वहीं पर ठहर गईं। इस तरह वह स्थान तरावली के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
-तब विक्रमादित्य ने दोबारा 12 वर्ष तक कड़ी तपस्या की और अपनी बलि मां को चढ़ा दी, लेकिन मां ने विक्रमादित्य को जीवित कर दिया।
-यही क्रम तीन बार चला और राजा विक्रमादित्य अपनी जिद पर अड़े रहे।
-ऐसे में तब चौथी बार मां ने अपनी बलि चढ़ाकर सिर विक्रमादित्य को दे दिया और कहा कि इसे उज्जैन में स्थापित करो।
-तभी से मां के तीनों अंश यानी चरण काशी में अन्नपूर्णा के रूप में, धड़ तरावली में और सिर उज्जैन में हरसिद्धी माता के रूप में पूजे जाते हैं।
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