Surya Puja: सनातन संस्कृति में आदि पंच देवों में से एक भगवान श्री सूर्य नारायण की पूजा में आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ सबसे अचूक व खास माना जाता है। मान्यता के अनुसार सूर्य देव को इस स्तोत्र के पाठ से प्रसन्न करने के साथ ही उनकी कृपा भी प्राप्त की जा सकती है।
दरअसल आदित्य हृदय स्तोत्र का जिक्र हिंदू धर्म के महाकाव्य रामायण में है, वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण के अनुसार यह स्तोत्र भगवान श्री राम को ऋषि अगस्त्य ने रावण पर विजय के लिए दिया था। इस स्त्रोत का पाठ शस्त्रों में भी काफी शुभ होने के साथ ही लाभकारी माना गया है। वहीं ज्योतिषशास्त्र में भी आदित्य हृदय स्तोत्र को काफी खास माना जाता है।
मान्यता है कि इसके हर रोज पाठ से जीवन की अनेक परेशानियों का निवारण होता है। वहीं कुछ लोग इसका पाठ केवल सूर्य देव के साप्ताहिक दिन रविवार को भी करते हैं।
आदित्य हृदय स्तोत्र क्यों है खास -
ज्योतिष के जानकारों के अनुसार आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने से एक ओर जहां जातक ऊर्जावान बनता है, वहीं इससे उसका सोया हुआ भाग्य भी जाग जाता है। ग्रहों के सूर्य को ज्योतिष शास्त्र में पिता व आत्मा का कारक माना गया है। वहीं सूर्य ही आपके मान सम्मान,यश कीर्ति सहित अपमान के भी कारक माने जाते हैं।
ऐसे में माना जाता है कि यदि आपका सूर्य अच्छा है, तो आपके अपने पिता से अच्छे संबंध रहने के साथ ही आप जीवन में काफी तरक्की हासिल करेंगे।
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लेकिन, वहीं यदि आपका सूर्य कमजोर या किन्हीं कारणोंवश अच्छे फल नहीं दे रहा है तो ऐसे में आपको आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ जरूर करना चाहिए। ताकि सूर्य के नकारात्मक प्रभाव से आपका बचाव हो सके।
ऐसे करें पाठ-
जानकारों के अनुसार आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के लिए सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान आदि कर शुद्ध होने के पश्चात गणेशजी का ध्यान कर उनका आह्वाहन करें या गणेश पूजा कर नित्य पूजा पूर्ण करें। पूजा करने के बाद आप 101 बार 'ओम सूर्य देवो नमः' मंत्र का जाप करें। इसके बाद पूरे विश्वास व श्रद्धा के साथ आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें। और अंत में सूर्यदेव को जल चढ़ाएं।
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आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ-
विनियोग
ॐ अस्य आदित्यह्रदय स्तोत्रस्य अगस्त्यऋषि: अनुष्टुप्छन्दः आदित्यह्रदयभूतो
भगवान् ब्रह्मा देवता निरस्ताशेषविघ्नतया ब्रह्माविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः
पूर्व पिठिता
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्। रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् । उपगम्याब्रवीद् राममगस्त्यो भगवांस्तदा ॥2॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मं सनातनम् । येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् । जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥
सर्वमंगलमागल्यं सर्वपापप्रणाशनम् । चिन्ता—शोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥5॥
मूल -स्तोत्र
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् । पुजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥6॥
सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावन: । एष देवासुरगणांल्लोकान् पाति गभस्तिभि: ॥7॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: । महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यापां पतिः ॥8॥
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पितरो वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: । वायुर्वहिन: प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥9॥
आदित्य: सविता सूर्य: खग: पूषा गभस्तिमान् । सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकर: ॥10॥
हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान् । तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥11॥
हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनोऽहस्करो रवि: । अग्निगर्भोऽदिते: पुत्रः शंखः शिशिरनाशन: ॥12॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: । घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥
आतपी मण्डली मृत्यु: पिगंल: सर्वतापन:। कविर्विश्वो महातेजा: रक्त:सर्वभवोद् भव: ॥14॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: । तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥15॥
नम: पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: । ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥16॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: । नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥17॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नम: । नम: पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे । भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥19॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने । कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥20॥
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे । नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेष सृजति प्रभु: । पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥22॥
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एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: । एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥23॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च । यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमं प्रभु: ॥24॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च । कीर्तयन् पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगप्ततिम् । एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥26॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि । एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥27॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा ॥ धारयामास सुप्रीतो राघव प्रयतात्मवान् ॥28॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् । त्रिराचम्य शूचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥29॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागतम् । सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31॥
।।सम्पूर्ण।।
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