प्राचीन काल में महर्षि च्यवन ऋषि का आश्रम वर्तमान मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में बेतवा किनारे था और ऐसी किवदंती है कि सीता हरण के पश्चात राम-लक्ष्मण चौतरफा सीता को खोजते हुए यहां से गुजरे थे तो च्यवन ऋषि के आश्रम में पहुंचे थे। बेतवा के कुंड में स्नान के बाद वापसी में वे यहां के भक्तों की भावनाओं को देखते हुए अपने चरणचिन्ह छोड़ गए थे।
भगवान राम के इन्हीं चरण चिन्होंं के कारण बेतवा का वह घाट चरणतीर्थ के रूप में विख्यात हुआ। ऐसा माना जाता हैकि बाद में इसी बेतवा पर 1775 में मराठा सेनापति खांडेराव अप्पाजी द्वारा महाराष्ट्रियन शैली का शिव मंदिर बनवाया गया और भगवान राम के चरणों को वहीं स्थापित कर दिया गया। चरणतीर्थ मंदिर के पुजारी पंडित संजय पुरोहित बताते हैं कि भगवान राम के चरण बेतवा में समा गए थे, बड़ी मुश्किल से उन्हें पुन: निकालकर स्थापित कराया गया है। इन्हीं चरणों के कारण इस स्थान को चरणतीर्थ कहा जाता है।
सूर्य की किरणों से आज होगी रामलला की अनूठी जन्म आरती
इसी विदिशा जिल के प्राचीन किले के रायसेन गेट के पास महाराष्ट्रियन परिवार द्वारा संरक्षित समर्थ मठ है। यह रामलला का मंदिर है। यहां स्थापना के समय से ही भगवान राम का जन्मोत्सव रामनवमी पर उत्साह से मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान के जन्म पर सभी देवता उनके दर्शन करने आए थे, इसलिए सूर्यदेव को भी दर्पण में उतारकर उनकी किरणों से भगवान की जन्म आरती की जाती है।
यहां पालना उत्सव होता है, जिसमें महिलाएं और भक्त भगवान के बालस्वरूप को पालना झुलाते हैं।वर्ष 1745 में स्थापित इस समर्थ मठ की स्थापना स्वामी समर्थ रामदास के अनन्य भक्त और शिष्य राजाराम महाराज ने की थी।इस मठ के सेवक और रामलला के मुख्य सेवक विनोद माधवराव देशपांडे बताते हैं कि समर्थ रामदास जी ने राजाराम को हनुमान प्रतिमा देकर यहां भेजा था और कहा था कि तुम्हें रामदासीय संप्रदाय चलाना है।
इसके बाद राजाराम पूरे देश में घूमकर प्रचार करते रहे और फिर 1745 में विदिशा आए तो यहां उन्हें ये मठ उनके किसी भक्त ने दान में देकर उसमें रामलला की प्रतिमाएं स्थापित कराईं। यहीं समर्थ रामदास जी द्वारा दी गई हनुमान जी की प्रतिमा भी मौजूद है। रामदास जी की चरणपादुकाएंं और उनके शिष्य कल्याण स्वामी द्वारा हस्तलिखित दासबोध ग्रंथ मठ में अब भी सुरक्षित हैं।
यहां भगवान राम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र ने भी किया था राज
राम सनातन संस्कृति के प्राण हैं। मर्यादाओं और हर रिश्ते को निभाने के साथ ही मानव रूप में उन्होंने हर क्षेत्र में ऐसे आदर्श स्थापित किए जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। धीर-गंभीर और करुणानिधान के रूप में उनकी पूजा त्रेतायुग से कलयुग तक निरंतर होती आ रही है। मानव रूप में भले ही अयोध्या उनकी जन्मस्थली रही हो, लेकिन विदिशा भी उनसे दूर नहीं रहा।
विदिशा वह नगरी मानी जाती है जिसे राम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र ने भी राज किया है। ऐसी मान्यता है कि वनवास के दौरान राम यहां से गुजरे थे और उनके चरणचिन्ह अब भी यहां मौजूद हैं। वही स्थान चरणतीर्थ कहलता है। बेतवा और बैस नदी के संगम पर वनवासी राम-लक्ष्मण की काले पत्थर से बनी प्रतिमाएं भी राम से अपना नाता बताती हैं।
छत्रपति शिवाजी के गुरु और रामदासी संप्रदाय के समर्थ रामदास जी ने अपने शिष्य राजाराम महाराज को हनुमानजी की प्राचीन प्रतिमा और अपनी खड़ाऊं प्रदान की जो अब भी 277 साल पहले स्थापित समर्थ मठ में मौजूद हैं। यह दुनियां का ऐसा अनूठा मंदिर है जहां राम जन्मोत्सव की आरती बाहर खुले मार्ग पर सूर्य की किरणों को दर्पण में उतारकर करीब 80 फीट अंदर गर्भग्रह में सूर्य की किरणों से होती है।
फिर विदिशा की रामलीला निरंतर 122 वर्ष से अपने अनूठे प्रदर्शन के कारण राम को देश-दुनियां में प्रचारित करने का काम कर रही है। इसके अलावा विदिशा की संस्कृति, यहां के नदी घाटों, प्राचीन स्थलों और गली-मोहल्लों में भी राम नाम की गूंज इस बात का द्योतक है कि हमारे राम का जन जन से नाता है। कण कण में वे बसते हैं। मर्यादा पुरुषोत्म राम मेरे हैं, वे सबके हैं।
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