Lord Rama During Vanvas in ramayana, Parampara article, Ramayana: भरत के साथ चल रही भीड़ के मध्य में राजकुल की स्त्रियां चल रही थीं। उन्हीं स्त्रियों के मध्य शीश झुकाए चल रही थी वह स्त्री भी, जिसकी आंखों में अश्रु थे और मन में चल रहा था भीषण द्वंद! कभी मन कहता था कि उसे अवश्य जाना चाहिए, क्योंकि भइया राम को वन से अयोध्या लाना कुल और राज्य दोनों के हित में है। वनवासी राम को राजा राम बनाने के लिए निकली इस यात्रा से वह स्वयं को कैसे दूर कर सकती थी? रामराज्य तो उसका भी स्वप्न था! पर कभी मन कहता, उसे नहीं जाना चाहिए! पति को चौदह वर्ष के लिए मुक्तकर दिया है ताकि, वे केवल और केवल भइया की सोचें...
Lord Rama During Vanvas in ramayana, Parampara article, Ramayana: उर्मिला ने स्वयं तय किया था कि इन चौदह वर्षों तक लखन के जीवन में उसका कोई हिस्सा नहीं होगा। फिर इसी बीच लक्ष्मण के समक्ष कैसे जा सकती थी वह? प्रेम तो हृदय में उसी तरह भरा हुआ है, बस प्रतिज्ञा की बांध से उसे रोक रखा है। यदि बांध टूट गया तो? मोह भरी एक दृष्टि भी उन पर पड़ी तो धर्म जाएगा... पर उनके समक्ष जा कर भी उन पर दृष्टि न डाले, ऐसा कैसे हो सकता है? दृष्टि पड़े और उसमें मोह न हो, ऐसा भी तो नहीं हो सकता न...
'अयोध्या के दुर्भाग्य के चौदह वर्ष सिया-राम के लिए वनवास के वर्ष हैं, पर उर्मिला-लखन के लिए तप के वर्ष हैं। इन दोनों जोड़ों की नियति में अंतर यह है कि सिया-राम अपना वनवास एक साथ निभाएंगे, पर उर्मिला-लखन को अपना तप अलग रह कर ही करना होगा।' उर्मिला नियति की इस योजना के विरुद्ध जाना नहीं चाहती थी, पर... धीरे धीरे वह भी बढ़ी ही जा रही थी।
उधर वन में अपनी कुटिया में बैठे राम की आंखें अनायास ही बार-बार भर आती थीं। वे आश्चर्य में डूब जाते कि ऐसा हो क्यों रहा है। सिया ने टोका तो बोले- 'जाने क्यों लग रहा है कि कुछ अशुभ हुआ है सिया! मन बहुत व्याकुल हो उठा है। कहीं मेरी मातृभूमि पर कोई संकट तो नहीं...'
'ऐसा न सोचिए भइया! पिताश्री वृद्ध हुए तो क्या हुआ, वे अपने युग में संसार के सर्वश्रेष्ठ योद्धा रहे हैं। उनके होते हुए अयोध्या पर कोई संकट आ ही नहीं सकता! फिर भइया भरत और शत्रुघ्न भी तो वहीं हैं न! आप विह्वल न होइए, सब ठीक होगा।' लखन ने सांत्वना दी।
राम ने कोई उत्तर नहीं दिया, पर उनकी दशा न बदली। कुछ समय बाद लखन भोजन बनाने के लिए सूखी लकडिय़ां लेने निकले। इन दिनों उनकी वनवासी बालकों से मित्रता हो गई थी। वे उन्हें धनुर्विद्या और भाषा सिखाते थे और बच्चे शिष्य भाव से उनकी सेवा किया करते थे।
लखन कुटिया से निकले और शीघ्र ही असंख्य बालक उनके साथ हो लिए। लखन से सोचा लकडिय़ों के साथ-साथ थोड़े फल भी ले लेते हैं, सो वे लोग कुछ दूर निकल आए। आपस में सहज परिहास करती हुई इस टोली को धीरे-धीरे कोलाहल सुनाई देने लगा। लगता था जैसे कोई बड़ी सेना चली आ रही हो। वन के पंछी भी व्यग्र होकर उडऩे-चहचहाने लगे थे, धूल आकाश में उडऩे लगी थी।
लखन ने मुड़कर देखा लड़कों की ओर, उनमें से दो शीघ्र दौड़ पड़े। कुछ समय बाद लौट कर आए और भयभीत स्वर में कहा, 'कोई बड़ी सेना है गुरुदेव! पर उनके साथ नगरजन भी हैं। स्त्रियां भी हैं। अब तो बहुत निकट आ गए हैं, आप यदि इस ऊंचे वृक्ष पर चढ़ कर देखें तो, उन्हें देख सकेंगे।
लखन तीव्र गति से उस विशाल वृक्ष की ऊपरी डाल तक चढ़ गए। वे उस बड़ी भीड़ का कोई चेहरा तो नहीं पहचान सके, पहचाने तो अयोध्या का ध्वज! वे शीघ्र उतर आए।
लखन के पास कुछ भी सोचने-समझने का समय नहीं था। अयोध्या की सेना वन में क्यों आई है, इसका सटीक उत्तर नहीं समझ पा रहे थे वे। पर उन्हें शीघ्र ही निर्णय लेना था। उन्होंने कुछ पल सोचा और फिर अपने वनवासी शिष्यों के साथ उस ओर बढऩे लगे जिस ओर से अयोध्या की सेना आ रही थी।
बस कुछ ही पल बाद! एक और सेना सहित समूची अयोध्या और दूसरी ओर अपने बीस शिष्य बालकों के साथ खड़े लक्ष्मण। धनुष को कंधे पर ही रहने दिया और हाथ में पकड़ी सूखी डाल को हवा में उठाकर अयोध्या के उस निर्वासित राजकुमार ने गरज कर कहा, 'सावधान राजकुमार! वन में आने का अपना प्रयोजन बताइए, अन्यथा आप जौ बराबर भी आगे न बढ़ सकेंगे।'
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