भादो या भाद्रपद महीने की अमावस्या शुरू होते ही अगले 15 दिनों तक के समय को पितृ पक्ष कहा जाता है। हिन्दू धर्म में पितृ पक्ष का खास महत्व है। इस दौरान लोग अपने पूर्वजों को याद करते हैं और पितरों का श्राद्ध करते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, पितृ पक्ष में श्राद्ध करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है।
लेकिन अब सवाल उठता है कि पितृ पक्ष में श्राद्ध करने की परंपरा कब से शुरू हुई? इस सवाल के जवाब को जानने के लिए द्वापर युग के महाभारत काल में चलना होगा। महाभारत के अनुसार, महातपस्वी अत्रि ने सबसे पहले महर्षि निमि को श्राद्ध करने का उपदेश दिया था। उसके बाद महर्षि निमि ने अपने पितरों को श्राद्ध किया था। इसके बाद से ही यह परंपरा शुरू हुई, जो आज तक चल रहा है।
बताया जाता है कि श्राद्ध के दौरान मुनि अपने पितरों को अन्न देते थे। कहा जाता है कि अन्न से तो पूर्वज तृप्त हो गए लेकिन उन्हें अजीर्ण रोग हो गया। इसके बाद वे लोग ब्रह्मा जी के पास जाकर इस रोग से निजात पाने के उपाय पूछे। तब ब्रह्मा जी ने कहा कि आपका कल्याण अग्निदेव ही कर सकते हैं।
तब सभी लोग अग्निदेव के पास पहुंचे और उनसे उपाय पूछा, तब अग्निदेव ने कहा कि अब वे भी उनके साथ श्राद्ध का भोजन करेंगे। यही कारण है कि श्राद्ध का भोजन सबसे पहले अग्निदेव को दिया जाता है। गौरतलब है कि श्राद्ध के दौरान पिंडदान करने के भी विधान है।
शास्त्रों के अनुसार, श्राद्ध के दौरान हवन में जो पितरों के लिए पिंडदान किया जाता है, उसे कोई भी दूषित नहीं कर सकता है, यहां तक की ब्रह्मराक्षस भी नहीं। इसकी वजह अग्निदेव को बताया जाता है। कहा जाता है कि अग्निदेव को देखकर राक्षस भी भाग जाते हैं। यही कारण है कि अग्नि को बहुत ही पवित्र माना गया है और अग्नि के संपर्क में आने से दूसरी चीजें भी पवित्र हो जाती हैं।
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