sawan somvar- भगवन शव स जड़ एक खस जगह जह मलत ह सतनहनत स मकत!

सावन का माह चल रहा है ऐसे में भगवान शिव का अर्धांगिनी माता पार्वती से विवाह को लेकर भी भक्तों के मन में कई तरह के सवाल उठते हैं। विवाह विधि से लेकर कई अन्य स्थितियों को तो हम सभी जानते हैं, लेकिन क्या आपको पता है कि भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह कहा हुआ और उस स्थान की क्या विशेषता है। यदि नहीं जानते हैं तो ऐसे समझें...

दअसल हर भक्त के मन में ये जिज्ञास होती है कि आखिर भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह कहां हुआ था, एक मान्यता के अनुसार भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह देवभूमि उत्तराखंड में हुआ था, ये जगह वर्तमान में त्रियुगीनारायण मंदिर के नाम से जानी जाती है, वहीं इस मंदिर की खास बात ये है कि आज भी यहां एक दिव्य लौ जल रही है, जिसे लेकर कहा जाता है कि भगवान शिव और माता पार्वती ने विवाह के दौरान इस दिव्य लौ की परिक्रमा यानि फेरे लिए थे।

विवाह के संबंध में ये है कथा
भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह को लेकर जो मान्यता है उसके अनुसर माता पार्वती भगवान शिव से ही विवाह करना चाहती थीं। वहीं सभी देवताओं का भी यही मानना था कि पर्वत राजकन्या पार्वती का विवाह भगवान शिव से ही होना चाहिए। परंतु ऐसी कोई संभावना भगवान शिव की ओर से दिखाए नहीं जाने पर माता पार्वती ने प्रण लिया कि वो विवाह सिर्फ भोलेनाथ से ही करेंगीे। इसी के चलते भगवान शिव से विवाह करने के लिए माता पार्वती ने अत्यंत कठोर तपस्या प्रारंभ कर दी। माता पार्वती की ऐसी कठोर तपस्या देख भोलनाथ ने अपनी आंख खोलने के बाद पार्वती से कहा कि वो किसी समृद्ध राजकुमार से शादी करें, भगवान शिव ने यहां इस बात पर भी जोर देते हुए कहा कि आसान नहीं होता एक तपस्वी के साथ रहना।

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भगवान शिव की ये सभी बातें सुनने के बावजूद माता पार्वती अपने प्रण पर अडिग बनी रहीं, उन्होंने भगवान शिव से विवाह को लेकर अपने प्रण के लिए खुद को और कठिन परिस्थिति के लिए तैयार कर लिय। माता पार्वती की इस तरह की जिद को देख भगवान भोलेनाथ पिघल गए और उनसे विवाह करने को मान गए।

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यहां हुआ था भगवान शिव व माता पार्वती का विवाह
देवभूािम उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग जिले के त्रियुगीनारायण गांव में एक अत्यंत प्राचीन मंदिर मौजूद है। इस त्रियुगीनारायण मंदिर को त्रिवुगीनारायण मंदिर के नमा से भी लोग जानते हैं। माना जाता है कि यहां आज भी भगवान विष्णु माता लक्ष्मी व भूदेवी के साथ विराजमान हैं।

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अग्निकुंड जिसके लिए थे भगवान शिव व माता पार्वती ने फेरे - जहां आज भी जलती हैं दिव्य लौ
भगवान शिव को माता पार्वती ने अपनी कठोर तपस्या से विवाह के लिए प्रसन्न किया जिसके बाद भगवान शिव ने माता पार्वती के प्रस्ताव को स्वीकार कर किया। मान्यता के अनुसार इसके बाद शिव-पार्वती का विवाह त्रियुगीनारायण मंदिर में हुआ। इस विवाह की खास बात ये भी है कि यहां भगवान विष्णु ने माता पार्वती के भाई होने का कर्तव्य निभाते हुए ये विवाह संपन्न करवाया।

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वहीं ब्रह्मा जी इस विवाह में पुरोहित रहे। इस मंदिर के सामने स्थित अग्निकुंड के ही शिव-पार्वती ने विवाह के फेरे लिए। इस अग्निकुंड की खास बात ये है कि इसमें आज भी लौ जलती रहती है। यह लौ शिव-पार्वती विवाह का प्रतीक मानी जाती है, इसलिए इस मंदिर को अखंड धूनी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

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तीन कुण्ड भी इस मंदिर के पास मौजूद हंै। जो इस प्रकार हैं...
1. ब्रह्माकुण्ड- इस कुण्ड के संबंध में मान्यता है कि यहीं ब्रह्मा जी ने भगवान शिव के विवाह से पूर्व स्नान किया था जिसकब बाद वे विवाह में पुरोहित के रूप में प्रस्तुत हुए।
2. विष्णुकुण्ड- इस कुण्ड के संबंध में मान्यता है कि यहीं भगवान शिव के विवाह से पूर्व विष्णु जी ने स्नान किया था।
3. रुद्रकुण्ड- इस कुण्ड के संबंध में मान्यता है कि यहीं विवाह में उपस्थित होने वाले सभी देवी-देवताओं ने स्नान किया था।

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माना जाता है कि इन समस्त कुण्डों के जल का स्रोत सरस्वती कुण्ड है। वहीं सरस्वती कुण्ड का निर्माण विष्णु जी की नासिका से हुआ है। मन्यता के अनुसार विवाह के समय भगवान शिव को एक गाय भी भेंट की गई थी, उस गाय को मंदिर में ही एक स्तंभ पर बांधा गया था।

त्रियुगीनारायण मंदिर की विशेषताएं
मान्यता के अनुसार वर्तमान के त्रियुगीनारायण मंदिर का निर्माण त्रेतायुग में हुआ है। वहीं मंदिर में दिव्य लौ जिस के अग्निकुंड में जल रही है, वहां प्रसाद के रूप में लकडियां डाली जाती हैं, श्रद्धालु इस अग्निकुंड सेें धूनी भी ले जाते हैं, इसे लेकर मान्यता ये है कि यहां की धूनी लेने से व्यक्ति के वैवाहिक जीवन मे सदा सुख-शांति बनी रहती है। मान्यता के अनुसार -संतानहीनता- से मुक्ति सभी देवी-देवताओं ने शिव-पार्वती विवाह से पहले जिन सभी कुण्ड में स्नान किया था, उनमें स्नान करना चाहिए, इससे संतान की प्राप्ति मनुष्य को होती है।

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इस मंदिर की एक खास बात और यह है कि पौराणिक कथा के अनुसार राजा बलि ने इन्द्रासन पाने के लिए सौ यज्ञ करने का निश्चय लिया और 99 यज्ञ होने के बाद भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण करके राजा बलि का अंतिम यज्ञ भंग कर दिया, तबसे ही इस स्थान पर भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा-अर्चना भी होती है।

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