Jagannath puri Temple Rath yatra 2023 Interesting facts: सनातन धर्म में माना जाता है कि अहं भक्तपराधीनो... इसका अर्थ है कि भगवान अपने भक्तों, अपने सेवकों के वश में रहता है। जैसे गोपियों और कृष्ण की ही भक्ति देखिए। गोपियां अपनी खुशी के लिए कन्हैया को माखन-छाछा के लिए नाच नचा देती थीं। बांसुरी बजाने को मजबूर कर देती थीं और उनकी अठखेलियों का पूरा सुख उठाती थीं। कभी उन्हें इतना परेशान कर देती थीं कि वे रो देते थे। कभी उनकी सेवा करने के बहाने उन्हें बीमार तक कर देती थीं। और आपको बता दें कि आज तक यही स्थिति बनी हुई है कि आज भी भगवान एक निश्चित अब आपके मन में सवाल आ रहा होगा कि भगवान बीमार भी हुए हैं। तो हैरान मत होइए! पत्रिका.कॉम के इस लेख में हम आपको बता रहे हैं देश के जगन्नाथ पुरी मंदिर में बसने वाले हमारे भगवान श्री कृष्ण के बारे में ऐसे ही चौकाने वाले फैक्ट जो बताते हैं कि हर साल जगन्नाथ यात्रा के पहले यहां भगवान बीमार हो जाते हैं। फिर उनका इलाज भी किया जाता है।
ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ को ठंडे पानी से नहलाया जाता है। नहाने के बाद उन्हें बुखार आता है। 15 दिन तक भगवान जगन्नाथ को एकांत में एक विशेष कक्ष में रखा जाता है। वहां वैद्य और उनके निजी सेवक उनका ख्याल रखते हैं। इसे अनवसर कहा जाता है। इस दौरान भगवान जगन्नाथ को फलों का रस, औषधियां और दलिये का भोग लगाया जाता है। और जब भगवान स्वस्थ हो जाते हैं, तो उन्हें रथ पर सवार कर भक्तों के दर्शन के लिए निकाला जाता है। रथ पर भगवान जगन्नाथ की यही सवारी दुनिया भर में रथ यात्रा के नाम से जानी जाती है। आपको बता दें कि रथयात्रा हर साल हिन्दू कैलेंडर के अनुसार शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि यानी दो तारीख को निकाली जाती है। इस वर्ष 2023 में यह यात्रा शुक्ल पक्ष के दूसरे दिन 20 जून मंगलवार के दिन शुरू की जाएगी। रथ यात्रा का महोत्सव 10 दिन का होता है, जो शुक्ल पक्ष की ग्यारस के दिन समाप्त होता है। इस दौरान पूरी में लाखों की संख्या में लोग पहुंचते हैं। इस दिन भगवान कृष्ण, उसके भाई बलराम और बहन सुभद्रा को रथों में बैठाकर गुंडीचा मंदिर ले जाया जाता है। तीनों रथों को भव्य रूप से सजाया जाता है। जिसकी तैयारी भी महीनों पहले से ही शुरू हो जाती है।
जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा को लेकर बताई जाती हैं कई कहानियां, आप भी जानें
- इस रथ यात्रा से जुड़ी बहुत सी कथाएं है, जिसके कारण इस महोत्सव का आयोजन किया जाता है।
- कुछ लोग मानते हैं कि कृष्ण की बहन सुभद्रा अपने मायके आती हैं और अपने भाइयों से शहर में घूमने की इच्छा जताती हैं। तब कृष्ण, बलराम, सुभद्रा के साथ रथ में सवार होकर शहर में घूमने जाते हैं। इसीलिए रथ यात्रा पर्व की शुरुआत हुई।
- कुछ लोग मानते हैं कि गुंडीचा मंदिर में स्थित देवी कृष्ण की मौसी हैं, जो तीनों को अपने घर आने का निमंत्रण देती हैं। श्रीकृष्ण, बलराम सुभद्रा के साथ अपनी मौसी के घर 10 दिन के लिए रहने जाते हैं। इसलिए यह रथ यात्रा शुरू हुई।
- कुछ कहते हैं कि श्रीकृष्ण के मामा कंस उन्हें मथुरा बुलाते हैं, इसके लिए कंस गोकुल में सारथि के साथ रथ भिजवाता है। कृष्ण अपने भाई बहन के साथ रथ में सवार होकर मथुरा जाते हैं। इसलिए रथ यात्रा एक परम्परा बन गई।
- वहीं कुछ लोगों का मानना है कि इस दिन श्री कृष्ण कंस का वध करके बलराम के साथ अपनी प्रजा को दर्शन देने के लिए बलराम के साथ मथुरा में रथ यात्रा करते हैं।
- कुछ का कहना है कि कृष्ण की रानियां माता रोहिणी से उनकी रासलीला सुनाने को कहती हैं। माता रोहिणी को लगता है कि कृष्ण की गोपियों के साथ रासलीला के बारे सुभद्रा को नहीं सुनना चाहिए। इसलिए वो उसे कृष्ण, बलराम के साथ रथ यात्रा के लिए भेज देती हैं। तभी वहां नारदजी प्रकट होते है, तीनों को एक साथ देख वे प्रसन्न हो जाते है और प्रार्थना करते है कि इन तीनों के ऐसे ही दर्शन हर साल होते रहें। उनकी यह प्रार्थना सुन ली जाती है और रथ यात्रा के जरिए तब से अब तक इन तीनों के दर्शन होते हंै।
रथ यात्रा के बारे में जान लें ये जरूरी बातें
- पुरी रथयात्रा के लिए बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ बनाए जाते हैं।
- रथयात्रा में सबसे आगे बलरामजी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है।
- यह रथ उनके रंग और ऊंचाई से पहचाना जाता है।
- बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं।
- इसका रंग लाल और हरा होता है।
- देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' या 'पद्म रथ' कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है।
- जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नंदीघोष' या 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है।
- भगवान जगन्नाथ का नंदीघोष रथ 45.6 फीट ऊंचा, बलरामजी का तालध्वज रथ 45 फीट ऊंचा और देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है।
- सभी रथ नीम की पवित्र लकडिय़ों से बनाए जाते हैं, जिसे 'दारु' कहते हैं।
- इसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान की जाती है, जिसके लिए जगन्नाथ मंदिर एक खास समिति का गठन करती है।
- इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या कांटे या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है।
- रथों के लिए काष्ठ का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से ही शुरू हो जाता है।
- जब तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब छर पहनरा नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है।
- इसमें पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं।
- वे 'सोने की झाड़ू' से रथ मंडप और रास्ते को साफ करते हैं।
- आषाढ़ माह की शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा शुरू होती है।
- ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंख की ध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं।
- कहते हैं, जिन्हें रथ को खींचने का मौका मिलता है, वह बहुत ही भाग्यवान होता है।
- जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा शुरू होकर पुरी नगर से गुजरते हुए ये रथ गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं।
- यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिन के लिए विश्राम करते हैं।
- गुंडीचा मंदिर को गुंडीचा बाड़ी भी कहा जाता है।
- यह भगवान की मौसी का घर है।
- गुंडीचा मंदिर में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को 'आड़प-दर्शन' कहा जाता है।
- इस मंदिर को लेकर पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था।
- आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ फिर से मुख्य मंदिर की ओर जाते हैं।
- रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहा जाता है।
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